Book Title: Updesh Mala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 71
________________ (शोक द्वार-) शोक-स्वजनादि के मृत्यु पर चित्त का उद्वेग, 'संताप' =अधिक शोक, 'अधृति' =कुछ अनिष्ट पदार्थ के संयोग में उसके वियोग की विचारणा, 'मन्यु' =अति शोक से जात पर आक्रोश, 'वैमनस्य' =आपघातादि की विचारणा, 'कारुण्य' =अल्प रूदन, 'रुन्नभाव' =पोकार कर रोना, आदि साधु धर्म में हो ऐसा (तीर्थंकरादि) नहीं चाहते। (अर्थात् साधुजीवन में ऐसा शोक नहीं होना चाहिए) ।।३१९।। भयसंखोहविसाओ, मग्गविभेओ विभीसियाओ य । परमग्गदंसणाणि य, दड्डधम्माणं कओ हुंति ॥३२०॥ .. (भय द्वार-) 'भय'=निःसत्त्वता से आकस्मिक डर, 'संक्षोभ' =चोरादि देखकर कम्प, 'विषाद' =दीनता, 'मार्ग-विभेद' मार्ग में जाते हुए सिंहादि देखकर भय से इधर उधर जाना, भागना, 'बिभीषिका'=वेतालादि व्यंतर . देखकर कंपायमान होना (ये दोनों जिन कल्पि मुनियों के लिए है) 'परमरग दसणाणि'=भय से दूसरों को मार्गदर्शन देना यानि वर्तन कहना (भौतिक कार्य के लिए कहना)। ये भयस्थान धर्म में निश्चल चित्तवाले को नहीं होते ।।३२०।। कुच्छा चिलीणमलसंकडेसु, उब्वेवओ अणिढेसु ।। . चक्नुनियत्तणमसुभेसु, नत्थ दव्येसु दंताणं ॥३२१॥ . . (जुगुप्सा द्वार -) अशुचि आदि से या सड़े हुए शब की दुर्गंधी पदार्थों की निंदा, 'अनिष्ट' =मलिन शरीरादि प्रति उद्वेग, अशुभ-किटाणु युक्त कुत्ते आदि के शरीर को देखकर आँख घृणा से फेर लेना ये कार्य दान्त मुनि को नहीं होते ।।३२१।। एयं पि नाम नाऊण, मुज्झियव्यं ति नूण जीवस्स । फेडेऊण न तीरइ, अइबलिओ कम्मसंघाओ ॥३२२॥ जो ऊपर बताये वे कषाय नोकषाय को शांत करने वाले जिन वचन को जानते हुए जो मानव मूढ़ बनता है। कषायादि दूर नहीं करता उसमें उसका अति बलवान् कर्म समूह कार्य करता है। उस तत्त्वज्ञ जीव को भी बलात्कार से अकार्य में प्रवर्तीत करें उसमें हम क्या कर सकते हैं? हम तो मात्र दृष्टा रह सकते हैं ।।३२२।। जह जह बहुस्सुओ सम्मओ अ, सीसगणसंपरिवुडो अ । अविणिच्छिओ अ समए, तह तह सिद्धंतपडिणीओ ॥३२३॥ (गारव द्वार-) शास्त्र श्रवण मात्र से बहुश्रुत हो, और वैसे अज्ञ लोको श्री उपदेशमाला 66

Loading...

Page Navigation
1 ... 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128