Book Title: Updesh Mala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 57
________________ पानी के समान) कलुषित किया। (निधत्त से) कर्मों ने आत्म प्रदेशों के साथ एक मेक होकर (जीव को) कीट्टी भूत किया (सुवर्ण में रज के समान)। (निकाचित से) कर्म ने जीव को अपने साथ एक रस जैसा बना दिया (गुंदर में मिला हुआ गुंदर द्रव्य के साथ एक रस होता है वैसे) और (स्पृष्टता से) मलिन किया (धूलवाले शरीर सम दृष्टांत रूप में ११-१२-१३ गुणठाणे) कर्म से कलुषित होने का कारण जीव तत्त्व को जानते हुए भी मोहोदय से मोहित होता है ।।२४९।। कम्मेहिं बज्जसारोवमेहिं, जउनंदणो वि पडिबुद्धो । .. . सुबहुं पि विसूरंतो, न तरइ अप्पक्खमं काउं ॥२५॥ (कर्म की विटंबणा कैसी? कि श्री नेमिनाथ प्रभु से) अच्छी प्रकार प्रतिबोधित यदुपुत्र कृष्ण भी शताधिक बार मन में खेदित होते हुए. भी, वज्रसमान कठोर कर्म के कारण आत्म कल्याण करने में (विरति लेने में) समर्थ न बनें ।।२५०।।। वाससहस्सं पि जई, काऊणं संजमं सुविउलं पि । अंते किलिट्ठभावो, न विसुज्झइ कंडरीउव्य ॥२५१॥ (क्लिष्ट कर्मों की विषमता ऐसी है कि) मुनि एक हजार वर्ष तक अति दीर्घ चारित्र का पालनकर भी अंत में (कर्मोदय सें) संक्लिष्ट परिणामी बना हुआ, कंडरीक के समान शुद्ध परिणाम वाला नहीं बनता ।।२५१।। . ___ अप्पेण वि कालेणं, केइ जहागहियसीलसामण्णा । साहति निययकज्ज, पुंडरियमहारिसि. ब्ब जहा ॥२५२॥ (जब क्लिष्ट कर्म न हो ऐसे महा सत्त्वशाली) कितनीक आत्माएँ जैसे 'शील' =महाव्रत स्वीकार किये उसी प्रकार (यथार्थ रूप में पालनकर) प्राप्त श्रमणत्व के कारण अल्प समय में ही पुंडरीक महर्षि के समान स्वयं के प्रयोजन को सिद्ध करते हैं ।।२५२।।। काऊण संकिलिटुं सामण्णं, दुल्लहं विसोहिपयं । । सुज्झिज्जा एगयरो, करिज्ज जड़ उज्जमं पच्छा ॥२५३॥ प्रथम साधुत्व को संक्लेशवाला (दूषित) बनाकर फिर आत्मा को विशुद्धि स्थान प्राप्त करवाना दुर्लभ है। फिर भी 'एकतरः' कोई (कर्म-विवर मिलने से) पीछे से उद्यम करे तो पुनः विशुद्धि को प्राप्त कर सकता है। [परंतु उद्यम के बिना नहीं। अतः आत्मार्थी को चारित्र में प्रथम से ही दूषण न लगने देना क्योंकि चारित्र वैसे भी दुष्कर है।] ।।२५३।। श्री उपदेशमाला 52

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