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मे मोक्ष के हेतु से विमुख रहा है) ।।१९५।।
परितप्पिएण तणुओ, साहारो जड़ घणं न उज्जमइ ।
सेणियराया तं तह, परितपंतो गओ नरयं ॥१९६॥ . जो तप संयम में अप्रमत्तता पूर्वक गाढ़ उद्यम न करें तो केवल परिताप से (पाप का संताप) अत्यल्प रक्षण होगा। (दृष्टांत) श्रेणिक राजा (वैसे तप-संयम के उद्यम बिना) आत्म निंदा करने पर भी नरक में गये ।।१९६।।
जीवेण जाणिउ विसज्जियाणि, जाइसएसु देहाणि । थोवेहिं तओ सयलंपि, तिहुयणं हुज्ज पडिहत्थं ॥१९॥
(दुःखों से भव निर्वेद प्राप्त करने के लिए ऐसा विचार कर कि) शताधिक जातियों में जीव ने शरीर छोड़े उसमें से (अनंतवें भाग के शरीरों से) अल्प भी शरीरों से तीनों जगत 'पडिहत्थ' पूर्ण रूप से भर जाय। (आश्चर्य है कि फिर भी जीव को संतोष नहीं) ।।१९७।। .......
नहदंतमंसकेसट्ठिएसु, जीवेण विप्पमुक्केसु । तेसु वि हविज्ज कइलास-मेरुगिरिसन्निभा कूडा ॥१९८॥
इस जीव ने (अनादि संसार में जितने) नख, दांत, मांस, केश, हड्डियाँ छोड़ दी है कि उससे भी बड़े कैलाश मेरु पर्वत जैसे स्तूप हो जाय : ।।१९८।।
हिमवंतमलयमंदर-दीवोदहिधरणिसरिसरासीओ । ... अहिअयरो आहारो, छुहिएणाहारिओ होज्जा ॥१९९॥
.. इस जीवने क्षुधा पीड़ित होकर जितना आहार लिया उससे हिमवंत . पर्वत, मलयाचल, मेरु पर्वत, द्वीप, समुद्र और पृथ्वीयों की समान राशि से
अधिक राशि हो जाय ।।१९९।। ... जं णेण जलं पीयं, घम्मायवजगडिएण तंपि इहं । . सव्येसु वि अगडतलाय-नईसमुद्देसु नवि हुज्जा ॥२००॥
इस जीव ने ग्रीष्म के आतप से अभिभूत होकर जितना पानी पिया है उतना पानी इस लोक के कूएँ तलाब नदी और समुद्रों में भी नहीं समा सकता ।।२००।।
पीयं थणयच्छीरं, सागरसलिलाओ होज्ज बहुअयरं । संसारम्मि अणंते, माऊणं अन्नमन्नाणं ॥२०१॥ . जिसकी आदि उपलब्ध नहीं है ऐसे संसार में अन्यान्य जन्मों में हो
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श्री उपदेशमाला