Book Title: Updesh Mala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 30
________________ कामरागकारी बातचीत, (ईशारे-हावभाव आदि बताना) और उनके स्थान, स्वजन, घर संबंध में विचारणा (ये कार्य साधु के) तप-शील (उत्तर गुण) और महाव्रतों का नाश करते हैं। (गाथा में रहे हुए तव शब्द का एक अर्थ हे शिष्य तेरे शील आदि) ।।११४।। जोइसनिमित्तिअक्खर, कोउयआएसभूइकम्मेहिं । करणाणुमोअणाहि अ, साहुस्स तवक्खओ होइ ॥११५॥ (साधु का जो कार्य नहीं वहाँ) ज्योतिष या निमित्त बताना, मूलाक्षर आदि शिक्षण देना, (किसी कार्य के लिए) स्नानादि कौतुक बताना, भविष्यवाणी कहनी, राख (वासक्षेप-धागा आदि) मंत्रितकर देना, (मंत्रादि का) प्रयोग करना, ये कार्य साधु स्वयं करे, करावे या अनुमोदन करे उससे उसके बाह्याभ्यंतर धर्म का नाश होता है ।।११५।। जह जह कीरइ संगो, तह तह पसरो खणे खणे होइ । थोयो वि होइ बहुओ, न य लहइ थिई निरुभंतो॥११६॥ जैसे-जैसे (दोष या असत् क्रिया का) संग किया जाता है वैसे-वैसे प्रतिक्षण उसकी वृद्धि होती है (अल्प दोष में क्या नुकसान? तो कहा कि) अल्प दोष भी बढ़कर अधिक होता है (क्योंकि जीव का दोष सेवन का अनादि का अभ्यास है) फिर वह रोका नहीं जाता और (गुर्वादि से) रोका जाय • तो असमाधि हो जाती है ।।१६।। .. जो चयइ उत्तरगुणे, मूलगुणे वि अचिरेण सो चयइ । :जहं जह कुणइ पमायं, पेलिज्जइ तह कसाएहिं ॥११७॥ . अल्प दोष अधिक कैसे होता है? तो कहा कि जो अल्प अर्थात् निर्दोष गोचरी आदि उत्तर गुण को छोड़ता है वह अल्प समय में अहिंसादि मूलगुण को भी छोड़ देता है क्योंकि जैसे-जैसे गुणों में प्रमाद शिथिलता होती है वैसे-वैसे (स्थान-संयोग मिलने से) कषाय प्रज्वलित होते हैं। अल्प भी दोष का राग तृतीय कषाय की चोकड़ी का राग होने से मूल चारित्र की हानि होती है ।।११७।। (इससे विपरीत) जो निच्छएण गिण्हइ, देहच्चाए वि न य धिई मुयइ । सो साहेइ सज्जं, जह चंडवडिंसओ राया ॥११८॥ जो दृढ़ निश्चयवान् (यथाशक्ति सवत अनुष्ठान का) स्वीकार करता है और प्राणांते भी उस स्थिरता को नहीं छोड़ते, वे स्वयं के प्रयोजन को सिद्ध करते हैं। जैसे राजा चंद्रावतंसक ।।११८।। श्री उपदेशमाला 25

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