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जं न लहइ सम्मतं, लभ्रूण वि जं न एइ संवेगं । • विसयसुहेसु य रज्जड़, सो दोसो रागदोसाणं ॥१२४॥
जो जीव समकित प्राप्त नहीं करता, या (समकित) प्राप्त करने के बाद भी संवेग अर्थात् मोक्ष की लगनी नहीं लगती, परंतु शब्दादि विषय सुखों में आसक्त गुलाम बना रहता है। यह गुन्हा राग और द्वेष का है (क्योंकि रागद्वेष जीव को दुःख के कारण में सुख का भ्रम उत्पन्न करवाते हैं) ।।१२४।।
तो बहुगुणनासाणं, सम्मत्तचरितगुणविणासाणं ।
न हु यसमागंतव्यं, रागद्दोसाण पावाणं ॥१२५॥ __इससे जिसका नाश अत्यंत गुणकारी है ऐसे रागद्वेष रूपी पाप, सम्यग्दर्शन, चारित्र-ज्ञानादिगुणों के नाशक होने से उसकी परवशता में नहीं जाना (अर्थात् उसके वश नहीं होना कारण कि) ।।१२५।। ... न वि तं कुणइ अमित्तो, सुटुंवि सुविराहिओ समत्थोवि। ..जं दोवि अणिग्गहिया, कति रागो य दोसो य ॥१२६॥ - अत्यंत प्रबलता से विपरीत बना हुआ समर्थ शत्रु जितना नुकसान नहीं करता उससे अधिक वश में नहीं हुए (निरंकुश) राग-द्वेष करते हैं। (श्लोक में राग और द्वेष समानबली है ऐसा सूचित किया है) ।।१२६।।
इहलोए आयासं, अजसं च रंति गुणविणासं च । . . पसवंति अ परलोए, सारीरमणोगए दुक्खे ॥१२७॥ . . (राग-द्वेष जनित कौन सा नुकसान? तो कहा कि-इस जन्म में शरीर-मन में अयोग्य श्रम, अपयश और गुणों का विध्वंस करता है और परलोक में (नरकादि में गिराकर) शारीरिक-मानसिक दुःखों को उत्पन्न करता है (ऐसा है तो) ।।१२७।। ... धिद्धी अहो अज्जं, जं जाणंतीवि रागदोसेहिं ।
फलमउलं कडुअरसं, तं चेव निसेवए जीयो ॥१२८॥
अत्यंत धिक्कार है जीव को (यहाँ देखो) वह असत् प्रवृत्तिओ में राग-द्वेषकर-करके महाउग्र कटु रसवाले विपाक भोगने पडेंगे ऐसा जानते हुए भी खेद की बात है कि वह राग-द्वेष युक्त असत् क्रिया करता रहता है ||१२८।।
को दुक्खं पाविज्जा?,कस्स व सुक्नेहिं विम्हिओ हुज्जा?। को वे न लभिज्ज मुक्खं?,रागद्दोसा जइ न हुज्जा ॥१२९॥ जो जीव में राग-द्वेष न होता तो (दुःख का कारण चले जाने से)
श्री उपदेशमाला
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