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करने के लिए मित्र बनाये हुए म्लेच्छ राजा पर्वत का (विष भोजित कन्या से विवाह करवाकर ) घात किया ।। १५० ।।
नियया वि निययकज्जे, विसंवयंतंमि हुंति खरफरूसा । जह रामसुभूमकओ, बंभक्खत्तस्स आसि खओ ॥१५१॥ अपने कहे जाते भी अपना कार्य बिगड़ जाने पर निष्ठुर कर्मी और कर्कशवादी बन जाते हैं। जैसे ( पृथ्वी पर से) परशुराम द्वारा क्षत्रियों का (सप्तबार) और सुभूम द्वारा ब्राह्मणों का ( २१ बार ) नाश किया गया। (दोनों स्वजन होते हुए भी) ।। १५१ ।।
कुलघरनिययसुहेसु अ, सयणे अ जणे य निच्च मुणिवसहा । विहरति अणिस्साए जह अज्जमहागिरी भयवं ॥ १५२ ॥
इस कारण उत्तम मुनि कुटुंब, घर और स्वयं की सुखाकारीता और. स्वजन और जन सामान्य के विषय में सदा निश्रा रखें बिना विचरते हैं जैसे महात्मा आचार्यमहागिरि ।।१५२।।
रूयेण जुव्वणेण य, कन्नाहि सुहेहिं वरसिरीए य । न य लुब्धंति सुविहिया, निवरिसणं जंबूनामुत्ति ॥ १५३॥ सुविहित साधु सुंदर रूप से, यौवन से, 'य' कलाओं से, गुणियल कन्याओं से, ऐहिक सुखों से और विशाल संपत्ति से (कोई आकर्षित करे तो भी) लोभित नहीं होते (इसमें ) दृष्टांत रूप में जंबू नामक महामुनि (अतः साधुओं को ऐहिक सुख की स्पृहा रहित और सुगुरु द्वारा नियंत्रित अनेक साधुओं के मध्य रहना चाहिए ।। १५३ ।।
उत्तमकुलप्पसूया, रायकुलवर्डिसगा वि मुणिवसहा । बहुजणजइसंघट्टं, मेहकुमारु व्व विसर्हति ॥ १५४ ॥
ऊँचे कुल में जन्म प्राप्त और राजकुल के अलंकार (तिलक) तुल्य ऐसे भी दीक्षित बने हुए उत्तम मुनि बहुत जन ( विविध देश) के साधुओं की (सारणा - वारणादि या) संघट्टन आदि को समता पूर्वक सहन करते हैं जैसे मेघकुमार मुनि ( अतः गच्छ में रहकर सहिष्णु बनना, नहीं तो क्षुद्रता का पोषण होता है) ।। १५४ । ।
अवरुप्परसंबाह सुक्खं, तुच्छं सरीरपीडा य ।
सारण वारण चोयण, गुरुजण आयत्तया य गणे ॥ १५५ ॥ गच्छ में रहने से परस्पर घर्षण, सुख-सुविधा नहींवत्, परीसह की पीड़ा, सारणा (विस्मृत कर्तव्य को याद करवाना वारणा (निषिद्ध का वारण)
श्री उपदेशमाला
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