Book Title: Updesh Mala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 43
________________ (देवताधिष्ठित) रत्नादि निधान के पास में आया हुआ कोई निर्भागी उस निधान को प्राप्त करने की इच्छा वाला भी 'निरुत्तप्पो' = (उसकी पूजा बलि आदि के) उद्यम बिना इस लोक में नष्ट होता है । ( निधि लाभ गंवांकर हांसी पात्र बनता है) इस प्रकार प्रत्येक बुद्धपने के लाभ की राह देखने वाला (तप, संयम के उद्यम से रहित ) नष्ट होता है (निधि समान मोक्ष न पाकर तप, संयम के उद्यम बिना सन्मार्ग से भ्रष्ट होता है ।। १८१ । । सोऊण गई सुकुमालियाए, तह ससगभसंग भइणीए । ताव न विससियव्वं, सेयट्ठी धम्मिओ जाव ॥१८२॥ शशक-भशक की बहन सुकुमालिका साध्वी की (मूर्च्छित- दशा में सहज भ्रातृ स्पर्शना के सुखद संवेदन से अति भ्रष्टावस्था सुनकर धर्मचारी को 'सेयट्ठी'=श्वेतास्थि=मृत न हो वहाँ तक अथवा श्रेयार्थी (मोक्षार्थी) धार्मिक यति (जीवंत) हो वहाँ तक रागादि का विश्वास न करना । ( रागादि से डरते रहना) ।। १८२ ।। खरकरहतुरयवसहा, मत्तगइंदा वि नाम दम्मंति । इक्को नयरि न दम्मइ, निरंकुसो अप्पणो अप्पा ॥१८३॥ गधा, ऊँट, अश्व, बैल और उन्मत्त हाथी को वश किया जाता है। मात्र निरंकुश (तप-संयम के अंकुश से रहित ) स्वयं की आत्मा वश नहीं होती । [यह महान् आश्चर्य है ] ।।१८३।। वरं मे अप्पा दंतो, संजमेण तवेण य । मा हं परेहिं दम्मंतो, बंधणेहिं वहेहि य ॥ १८४॥ (वास्तव में सोचना कि—) श्रेष्ठ यही है कि मुझे ही मेरे आत्मा का संयम और तप के द्वारा दमन करना चाहिए जिससे मैं दूसरों के द्वारा दुर्गतियों में (बेडियों आदि से) बंधन में जकड़ा न जाऊँ ( चाबुक आदि से) मारा जाकर दमन न किया जाऊँ ।। १८४ । । उत्तरा ० १ / १६ ।। अप्पा चेय दमेयव्वो, अप्पा हु खलु दुद्दमो ।' अप्पा दंतो सुही होइ, अस्सिं लोए परत्थ यं ॥१८५॥ कर्तव्य यही है कि - स्वयं के आत्मा का दमन करना अति आवयक है। क्योंकि (बाह्य शत्रु का दमन सहज है, परंतु स्वयं के) आत्मा का ही दमन मुश्कील है। दमन किया हुआ आत्मा यहाँ और परलोक में सुखी होता है ।। १८५ ।। उत्तरा ० १ / १५ ।। श्री उपदेशमाला 38

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