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प्रणाम और क्षमा यह उत्तम गुण है) ।।५८।।
ते धन्ना ते साहू, तेसिं नमो जे अज्जपडिविरया ।
धीरा ययमसिहारं चरंति जह थूलभद्दमुणी ॥५९॥ ___वे धन्य हैं, वे साधु पुरुष हैं, उनको नमस्कार हो, जो धीर, अकार्य से विरत साधु असिधारा सम व्रत को स्थूलभद्र मुनि के समान अखंडित रूप से पालन करते हैं ।।५९।।
विसयासिपंजरमिय, लोए असिपंजरम्मि तिक्वमि । सीहा व पंजरगया, वसंति तवपंजरे साहू ॥६०॥
स्वयं के व्रतों को निरतिचार पालन करने के लिए जैसे सिंह स्वरक्षार्थे पिंजरे में रहता है वैसे विषय रूपी शस्त्रों से बचने के लिए साधु तप रूपी पींजरे में रहते हैं ।।६०।।
जो कुणइ अप्पमाणं, गुरुवयणं न य लहेइ उवएसं । सो पच्छा तह सोअड़, उवकोसघरे जह तवस्सी ॥१॥
जो गुरु वचन को नहीं मानता, उनके उपदेश को नहीं स्वीकारता वह साधु उपकोशा वेश्या के घर गये हुए सिंह गुफावासी मुनि समान पीछे से पश्चात्ताप करता है ।।६१।।।
जेट्टब्बयपव्ययभर-समुबहणववसियस्स, अन्वंतं । . जुवइजणसंवइयरे, जइत्तणं उभयओ भट्टं ॥२॥
महाव्रत रूप पर्वत के भार को वहन करने में ओत प्रोत साधु युवान स्त्री का निकट संबंध करने जाता है तब उसका साधुपना उभय भ्रष्ट हो जाता है। (न वह साधु, न वह गृहस्थ) ।।६२।। .
जइ ठाणी जइ मोणी, जड़ मुंडी यक्कली तवस्सी वा । पत्थन्तो अ अबंभं, बंभावि न रोयए मज्झं ॥३॥
जो कायोत्सर्गी हो, मौनी हो, मस्तक मुंडित हो, वृक्षछाल के वस्त्र से नग्न प्रायः हो, कठिन घोर तपस्वी हो, ऐसा साधु जो अब्रह्म की इच्छा करे तो वह ब्रह्मा हो तो भी रूचिकर नहीं है ।।६३।।
तो पढियं तो गुणियं, तो मुणियं तो अ चेइओ अप्पा। आवडियपेल्लियामंतिओ वि जड़ न कुणइ अकज्जं ॥६४॥
वही अध्ययन, वही मनन, वही अर्थ को जाना गिना जाय! या आत्मा की पहचान हो गयी कर माना जाय कि वह आत्मा किसी कुशील के
श्री उपदेशमाला