Book Title: Updesh Chintamani Satik Part 04
Author(s): Jayshekharsuri
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

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Page 144
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ९९८ उप चिं- इयरेसिं न अपमायाई ॥ १७ ॥ व्याख्या-- ईश्वरादिनिः प्रविशनिर्निर्यद्भिश्च तत्र राजनमा. ४ वने साधोर्व्याघातः स्खलना स्यात्, अमंगलबुला हननं वा स्यात्. संमदत्पिात्रजंगश्च. 'खद्धत्ति' प्रचुरान्नादिलाने लोजश्च स्यात्. उदाराणां पुंरुयादीनां दर्शने संगोऽनिष्वंगः स्यात्. तथाहो राजप्रतिग्रहमप्येते न त्यज॑तीति गर्दा स्यात्. इतरेषां मध्यम जिनसाधूनां नैते दोषाः कुतः ? अप्रमादात् तथा इदमेतावन्मात्रमहं तुभ्यं दास्यामीत्युक्तवतो गृहस्थrasaनादिलाभः स नित्यपिंगः, वर्ज्यश्चायमाधाकर्मादिदोषसंजवात् यद्दशवैका लिकचू:ि- " नियागं नाम निययंति वुतं जव, तं तु यदा आयरेण आमंति जत्र, जहां जयवं तुनेहिं मम दिये दिग्गहो कायचो, तदा तस्स अष्जुवगवंतस्स नियागं जवइ, न तु जत्था - हाजावेण दिये दिले जिरका लग्नेइसि ” तथोत्सर्गापवादविदः, तत्र सामान्येनोक्तो विधिरुत्सर्गः, यथा-" वासावासं पोसवियरस निच्चनत्तस्स निक्खुयस्त कप्पइएगं गोयरकालं गाहावइकुलं जत्ताए वा पाणाए वा निक्कमित्तए वा पवित्तिए वा. तद्वाधनाय कारणापेको विशेषोक्तो विधिरपवादः यथा-" खायरिययावत्रेण वा, उवज्जायवेयावच्चेण वा तत्रस्सिगिलाण - For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "

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