Book Title: Updesh Chintamani Satik Part 04
Author(s): Jayshekharsuri
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj
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१०४२
उप चिं| निवेसं च गरिदसि ॥१॥ तदानी निक्षार्थी मुनिर्गुरूणां पुरत उपयोगं करोति, अोघवाभा.४|| वृत्तिः-पढममापुनश् यकृत संदिस्सह उवढंगं करेमि, उबगकरावणि करेमि काउस्स.
गं, अहहिं उसासेहिं नमोकारं चिंतेइ, त नमोकारेण पारित्ता जण, संदिसह आयरि. 5 जण लाभो, साहु जण तहत्ति. त आयरि जण, जद गहियं पुवसाहहित्ति, त. उ यावस्सियाए जस्स जोगुत्ति जं जं संजमस्स उवगारे वय. तं तं गिह्निस्सामित्ति ॥३५॥ ततः किमित्याह
॥ मूलम् ॥--यावस्सिया चलिन । अञ्चखित्तो अणालो असढो ॥ जुगमित्तदत्त. दिही। आयपरविराहणविमुक्को ॥ ३३ ॥ अचियत्तं पमिकुठं । मामगं वा कुलं विवजांतो ॥ हिंम घराघरं सो। उकोसं जाव दोकोसं ॥ ३४ ॥ व्याख्या-निःक्रमणकालेऽवश्यकर्तव्यत्वादावश्यकीतया चलितः स्वोपराश्रयादिति गम्यते, अव्याक्षिप्तो गीतादिव्यासंगरहितः, अनाकुलः सर्वनिराकेभ्यः पूर्वमदं गलामि, येन प्रभृतां निदां प्राप्नोमीत्यौरसुक्यरहि| तः, अशः सरलचित्तः, शगे हि सारं वस्त्वशुद्धमपि शुद्धीकृत्य गृह्णीयात्, असारं च शु.
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