Book Title: Updesh Chintamani Satik Part 04
Author(s): Jayshekharsuri
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj
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उपचिं
ताभा.४
२०६३
जह समं वेवत्ति. कालस्याशुको नत्कालिकं श्रुतं परावर्तनीय मिति प्रतीतमेव. ॥४२॥ अथ खापविधिमाह___॥ मूलम ॥-कालंमि पमिकंते । ज सुयश त गुरुहिं गुन्नार्ड ॥ पमिलेहिय जुवसंथा -रयं च उच्चरिय सामाश्यं ॥ ४३ ॥ व्याख्या-काले प्रादोषिके प्रतिकांते यदि स साधुः स्वपिति, तदा गुरुभिरनुज्ञातः प्रत्युपेक्ष्य जुवं संस्तारकं च उच्चार्य सामायिकं, यदीति ग्रहणाद् दृढसंहननो जित निश्च स्यात् , स सकलामपि रात्रि जागृयादिति निवेदितं. स्वापविधिश्चायं-ज रत्तिं आगया ताहे कालं न गिळंति, निज्जुत्ती संगहणी गुणंति, जा पुण कालभूमी पमिलेहिया ताहे कालं गिळंति, जर सुद्धो करंति सज्जायं, अह न सुझो न पमिलेहिया वा वसही, ताहे निज्जुत्ति गुणंति पढमपोरसिं काऊण बहुपमिपुनाए पोरसीए गुरुसगासं गंतूण नणंति " श्वामि खमासमणो जाव वंदामि " खमासमणा व. हुपमिपुन्नाए पोरिसी अणुजाणह राश्संधारयं, ताहे पढमं काश्या नूमि वचंति, ताहे ज. त्थ संथारगनूमी तत्थ वच्चंति. बहिम्मि उवर्नगं करंता पमझता उबहीए दोरयं उबो ।
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