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१ आनंदा
उपासकदशांग सानुवाद
ध्ययन
॥४१॥
1॥४१॥
जोषणा-सेवना, तेनुं आराधन, पटले सौथी छेल्ली मरणान्तसमये शरीर अने कषायादिने कृश करनार तपविशेषनी आराधना करवी अर्थात् मरण समये आहारपाणी लीधा सिवाय अखंडितपणे काळधर्मने प्राप्त थर्बु ते अपश्चिम-मारणान्तिक-संलेखना-जोषणाराधना. तेना पांच अतिचार छे-इहलोगेत्यादि. १ इहलोग-मनुष्यलोक, तेने विशे आशंसा-अभिलाष, तेनो प्रयोग-प्रवृत्ति, व्यापार ते इहलोकाशंसाप्रयोग. 'हुं शेठ थाउं, अथवा बीजा जन्ममा प्रधान थाउं' एवी इच्छा करवी. २५ प्रमाणे परलोकाशंसाप्रयोग-'हुं देव थाउं' इत्यादि इच्छा करवी. ३ जीविताशंसाप्रयोग-जीवित-प्राण धारण करवा, तेनो आशंसा-इच्छानो प्रयोग-व्यापार. 'जो हुँ घणा काळ सुधी जीवू तो सारुं', आ संलेखना करनार वस्त्र, माला, पुस्तकनुं वांचq वगेरे सत्कार थतो जोइने घणा परिवारने जोवाथी के लोकनी प्रशंसा सांभळवाथी एम विचारे के 'जीवित ज श्रेष्ठ छ,' कारण के में अनशन कर्यु छे तो पण मारा उद्देशथी आवा प्रकारनो अभ्युदय करवानुं कारण आ छे-जो शरीरने आहारना त्याग वडे कृश न कयु होय एकदम खिन्न थयेली धातुओ वडे प्राणीओने मरणसमये आर्तध्यान थाय छे. तेनी आ सामाचारी छे-श्रावक सर्व श्रावकधर्मना उद्यापनने माटे होयनी शुं तेम अन्ते संयमने अंगीकार करे, तेने साधुधर्मना अवशेष रूप संलेखना छे. ए संबन्धे कांछे के "संलेखना अंते अवश्य होती नथी, कारण के कोइ प्रव्रज्या ग्रहण करे, तेथी जे संयमने अंगीकार करे त संयम ग्रहण कर्या पछी मरणसमये संलेखना करीने मरण पामे, जे संयमने अंगी-1 कार न करे ते आनन्द श्रावकनी पेठे संलेखना करे. तेमां तीर्थंकरोना जन्म, दीक्षा, ज्ञान अने निर्वाणना स्थाने, तेना अभावमां घरे, उपाश्रये, अरण्यमां, शत्रुजयादि तीर्थमां, त्यां पण भूमि जोईने प्रमाजीने जन्तुरहित स्थानमां चारे प्रकारना आहारनो त्याग करी पंच परमेष्ठिना नमस्कारना ध्यानमा तत्पर अतिचारना त्यागवडे ज्ञानादिनी आराधना करीने अरिहंतादि चार शरण अंगीकार करे. तथा आहारनो त्याग करवामां पांच प्रकारना अतिचारनो त्याग करे-१ मा लोकमां धन, पूजा, कीर्ति, वगेरेनी इच्छा करवी, २ परलोकमां स्वर्गादिनी इच्छा करवी, पूजा सत्कार वगेरे जोवाथी, घणा परिवारने अवलोकन करवाथी अने सर्वलोकनी श्लाघा सांभळवाथी एम माने के जीवितज श्रेष्ठ छे एम जीवितनी इच्छा करवी. ४ कोई पूजा वगेरे न करे तो जल्दी मरूं तो ठीक एम मरणनी इच्छा करवी तथा ५ निदान-आवा दुष्कर तपथी बीजा जन्ममा चक्रवतीं थाउं इत्यादि इच्छा करवी. ए अतिचारोनो त्याग करी समाधिरूपी अमृतथी सींचायेलो, परिषह अने उपसर्गना भयथी रहित जिनने विशे भक्तिवाळो आनन्द श्रावकनी पेठे मरणने प्राप्त थाय. जुओ योग, प्रका. ३ लो० १४९.