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उपासक
७सद्दालपुत्र अध्ययन
दशांग
सानुवाद
॥१५२॥
॥१५२॥
च्छेया जाव इयनिउणा इयनयवादी इयउवएसलद्धा इयविण्णाणपत्ता, पभू णं तुम्भे मम धम्मायरिएणं धम्मोवएसएणं भगवया महावीरेणं सद्धिं विवाद करेत्तए १ नो तिण? समझे। से केणटेणं देवाणुप्पिया एवं वुच्चइ'नो खलु पभू तुब्भे मम धम्मायरिएणं जाव महावीरेणं सद्धिं विवादं करेत्तए ? सद्दालपुत्ता! से जहानामए केइ पुरिसे तरुणे जुगवं जाव निउणसिप्पोवगए एगं महं अयं वा एलयं वा सूयरं वा कुक्कुडं वा तित्तिरं वा वयं वा लावयं वा कवोयं वा कविञ्जलं वा वायसं वा सेणयं वा हत्थंसि वा पायंसि वा खुरंसि वा पुच्छंसि
१४ त्यारबाद सद्दालपुत्र श्रमणोपासके मंखलिपुत्र गोशालकने आ प्रमाणे कडं-हे देवानुप्रिय! तमे 'इतिछेकाः' आ प्रमाणे छेकप्रस्तावने जाणनारा, यावत् ए प्रमाणे निपुण-मूक्ष्मदर्शी, ए प्रमाणे नयवादी-नीतिनो उपदेश करनारा, एम उपदेशलब्धा-आप्तना उपदेशनुं श्रवण कयु छ जेणे एवा, अने ए प्रमाणे विज्ञानप्राप्त छो, तो तमे मारा धर्माचार्य अने धर्मोपदेशक श्रमण भगवान महावीर साथे विवाद करवाने समर्थ छो? ए अर्थ युक्त नथी. हे देवानुप्रिय ! एम शा हेतुथी कहो छो के तमे मारा धर्माचार्य यावत् भगवंत महावीरनी साथे विवाद करवाने समर्थ नथी? हे सद्दालपुत्र ! जेम के कोइ पुरुष तरुण, बलवान्, युगवान्-उत्तम काळमां उत्पन्न थपेलो, यावत् निपुण शिल्पने प्राप्त थयेलो होय, ते एक मोटा अज, एडक-घेटा, सुकर, कुकडा, तेतर, बतक, लावा, कपोत, कपिंजल,
१४. 'पभुत्ति प्रभवः-समर्थ. 'इतिच्छेकाः' इति-प प्रमाणे, उपलब्ध अद्भुत प्रकार वडे, पम बीजे पण 'इति' शब्दनो अर्थ जाणवो. छेक-प्रस्तावने जाणनार, वृद्ध आचार्यों 'कलापंडित' एवी व्याख्या करे छे. 'इतिदक्षा:' कार्यने जलदी करनारा, तथा 'इतिप्रष्ठाः' दक्ष पुरुषोमां प्रधान, 'वाग्ग्मी-जेनी प्रशस्तवाणी छे एवा' एम वृद्धाचार्योए कह्यु छे. कवचित् 'पत्तट्ठा' पवो पाठ छे. तेमां 'प्राप्ताः ' जेणे