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बड़ा मानकर सभी संसाधनों का बिना किसी प्राकृतिक, धार्मिक एवं सामाजिक नियमों को पाले दोहन शुरू कर दिया है । हमने वैभव एवं नगरीकरण को विकास का मापदंड मानकर जीवन पद्धित बदल ली है । इसके हिसाब से जो मनुष्य जितनी अधिक ऊर्जा का उपयोग करता है वह उतना ही समाज में सम्मानित व्यक्ति होता है । औद्योगीकरण एवं शहरीकरण के साथ साथ पर्यावरण प्रदूषण हुआ है । जिसने बड़ी समस्या बनकर सम्पूर्ण मानव जाति के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिह्न लगा दिया है । हम अब तकनीकी मंडल में, जिसमें आक्सीजन की आवश्यकता पहले से २५ गुना अधिक है कितने दिन सांस ले पायेगें कुछ नही कहा जा सकता ।
इस भोगवादी सभ्यता ने मनुष्य को तीन तोहफे दिये हैं- प्रदूषण, भुखमरी एवं युद्व । आजकल वनों की तबाही ५० हैक्टेयर प्रति मिनट के हिसाब से हो रही है । प्रदूषण की वजह से सम्पूर्ण जीवों की करीब २५ प्रतिशत प्रजातियां इस पृथ्वी से समाप्त हो गयी हैं । भगवान् महावीर, गौतम बुद्ध एवं गांधी के देश में भारतीय संविधान की धारा ४८ के होने पर भी प्रतिवर्ष करोड़ों दुधारू जानवरों को काटकर मांस पैदा किया जाता है । प्रदूषण से होने वाली हानियों की सूची बहुत बड़ी है जिसमें नई-नई बेइलाज बीमारियों, मानसिक तनाव, आपसी प्रेमभाव का अभाव एवं सामाजिक तनाव है । आज करीब ७० हजार हानिकारक दवाइयां बाजार में खुले आम बिक रही हैं । पृथ्वी के चारों तरफ की औजोन पर्त में क्लोरोफिलोरो कार्बन एवं ऊची एवं तेज गति के हवाई जहाजों से होने वाली हानि से पृथ्वी के सम्पूर्ण जीव जगत् को खतरा पैदा हो गया है । मानव सभ्यता के इतिहास में ऐसा कोई काल नहीं रहा है जब स्वयं मनुष्य ने अपने पर्यावरण को इतना दूषित किया हो। इसका मुख्य कारण धार्मिक विचारों की कमी ही है ।
आजकल हमारे पास ज्ञान तो बहुत है लेकिन व्यावहारिक बुद्धि की कमी है । सामाजिक एवं धार्मिक बन्धनों के अभाव में मनुष्य का मन बेकार की दौड़ धूप करने लगा है। जैसे-जैसे ज्यादा मिलता गया वैसे-वैसे ही मनुष्य ज्यादा मांगता गया । सन्तुष्ट न होकर भोग भोगने की इच्छा बढ़ती जा रही है । आज हम प्रकृति को संस्कारित नही बल्कि भोग-लिप्सा के साधनों का भंडार मानकर उसके साथ बलात्कार कर रहे है । प्रकृति को सुसंस्कारित करने से संस्कृति एवं दोहन से विकृति होती है ।
हमको एक ऐसी जीवन शैली अपनानी होगी जिससे प्राकृतिक साधनों का दोहन एक दम रुक जाये । इसके लिए जैन धर्म के नियमों के अनुसार जीना होगा, सत्ता के स्थान सेवा, सम्पति के स्थान पर श्रम, शास्त्र एवं विद्या के स्थान पर शांति एवं सदाचार अपनाना होगा । आत्म-संयम एवं आत्मशुद्धि का महत्त्व सबसे ज्यादा जैन धर्म में ही है । जैन साधना-पद्धति एक ऐसी साधना पद्धति है जो प्रकृति के संतुलन में जरा भी बाधक नहीं बनती। जैन धर्म प्रदूषण का नितांत निषेधक है । इस धर्म में स्वार्थ के स्थान पर परमार्थ है ।
जैसा कि सभी जानते हैं कि हमारी संस्कृति का जन्म अरण्यों में हुआ था । अंदर की दुनिया की खोज करना (आत्मज्ञान) विकास माना जाता था । हमारे महापुरुषों ने, साधु-संतों ने प्रकृति में जीवन होने का अनुभव किया है जो जंन धर्म में
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तुलसी प्रज्ञा
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