Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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शु-पक्षियों और देवसमहका एकत्रित होना, मुनि-आयिका-श्रावक-श्राविका र पतुर्विध संघका संघटन करना, प्रधान श्रोताके रूप में बिम्बसार श्रेणिकका समवशरण में उपस्थित होना, श्रेणिकका का परिचय न उपली ऐतिहासिकता, अभयकुमार, मेधकुमार, वारिषेण, चन्दना, चेलना आदि राजन्यवर्गका महाबीर तीर्थकरकी देशनाको सुनने के लिए आना और वतादि ग्रहण करना, दिव्यध्वनिका भाषावैज्ञानिक विश्लेषण आदिका सहेतुक प्रतिपादन है। ___ इसी परिच्छेदमें तीस वर्षों तक हुए तीर्थकर महावीरके बिहारका विस्तारपूर्वक निरूपण है। महावीरका समवशरण देशके कोने-कोने में गया और जनसाधारणको अहिंसामृतका पान कराया। पुराण एवं अन्य ग्रन्थोंके आधारसे महावीरकी ८६ स्थानोंपर देशना हुई। उनको इस देशनाका आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ा । क्रियाकाण्ड कम हुआ और तप, त्याग तथा आत्म-साधनाका प्रवाह प्रवाहित हुआ। फलतः प्रसेनजित, रानी मृगावतो, वृषभसेन, अदीनशत्र, सुबाहु, जीवन्धर, चण्डप्रद्योत आदि क्षत्रिय राजाओं, इन्द्रभूति, अग्निभति, वायुभति आदि ब्राह्मण-विद्वानों, वन्दना, चेलना आदि स्त्रियों, अंजन, विद्युच्चर आदि चौर्यकर्म करनेवाले पतितजनोंने तीर्थंकर महावीरके उपदेशोंको ग्रहण कर आत्मकल्याण किया। इन सबका इस परिच्छेदमें अङ्कन है। कुसन्ध, अश्वष्ट, गान्धार आदि स्थानोंका भी निर्देश है, जहाँ महावीरने विहार किया था । परिच्छेदके अन्तमें महावीरके निर्वाण और निर्वाण-स्थानपर विशेष विचार किया तथा मध्यमा पावा-वर्तमान पावापुरको ही महावीरका निर्वाण-स्थान सिद्ध किया है। अष्टम परिच्छेद : वेशना--जयतत्त्वमीमांसा ___ इस परिच्छेदमें महावोर द्वारा सर्वप्रथम प्रतिपादित ज्ञेयतत्त्वकी विचारणा है। ज्ञेयका अनेकान्तस्वरूप, उसकी उत्पादादित्रयात्मकता, द्रव्य, गुण, पर्याय, जीच, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल इन छह द्रव्यों, जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष इन सात तत्त्वों और पुण्य, पाप सहित नव पदार्थोका विशद निरूपण इसमें है। नवम परिच्छेद : ज्ञानतत्वमीमांसा
इसमें ज्ञेयके अधिगमोपायके रूपमें उपदिष्ट ज्ञानका स्वरूप, उसके मति आदि पांच भेदों, उनके भी उपभेदों, प्रमाण, नय और निकोपका विस्तृत विवेचन है । स्याद्वाद और सप्तभङ्गीका भी सुन्दर प्रतिपादन है । वशम परिचछेद : धर्म और आचार-मीमांसा इस परिच्छेदमें जीवनके उत्कर्षके लिए धर्मकी अनिवार्यता, धर्मका स्वरूप,
आमुख : १७