Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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स्वप्नोंका फल-तीर्थकर पुत्रका जन्म, देवियों द्वारा माताकी अनवरत सेवा ।। महावीरका जन्म, सुमेरुपर इन्द्रादि द्वारा जन्माभिषेकोत्सव, शैशवकाल, वर्ष . मान, वीर, अतिवीर, सन्मति और महावीर नामोंसे सम्बद्ध घटनाओंका उल्लेख, किशोरावस्था में संजय देव द्वारा महावीरकी परीक्षा और उसकी पराजय, आत्मोन्मुखी असामान्य चिन्तनधारा, अलौकिक शारीरिक शक्तियों और उच्च एवं दृढ़ मनोबलकी उपलब्धि आदिका हृदयग्राही प्रतिपादन है । पञ्चम परिच्छेद : युवावस्था संघर्ष एवं संकल्प ___ इस रिच्छेदमें महावीरके असाधारण शरीर-सौन्दर्य, बल एवं यौवन प्रवेश, माता, पिता और परिवारका दुलार, जनताका अपार स्नेह, उनको विचारधारा, परिणयका प्रस्ताव और उससे इन्कार, विरक्तिकी ओर झुकाव, आत्मस्वातन्यकी उपलब्धि और जनकल्याणके लिए निग्रंन्य-श्रमण-दीक्षा ग्रहण आदिका मार्मिक विवेचन है। षष्ठ परिच्छेव : सपश्चरण, साबमा एवं कैवल्योपलरिष
इसमें महावीरने गिरिकन्दराओं, बीहड़ वनों और खुले मैदानों आदिमें जो दुर्धर तपश्चर्या की, मौनपूर्वक साधना की, अनेक उपसर्ग सहे, विघ्न-बाधाओं पर विजय प्राप्त को, विचित्र अभिग्रह लिए, केदमें बद्ध चन्दना द्वारा आहार ग्रहण और उसका उद्धार करना आदिका कथन करते हुए महावोरकी वीतरागतासमुपलब्धि, कैवल्यप्राप्ति और केवलज्ञानप्राप्तिस्थानका सप्रमाण निर्धारण किया गया है। सप्तम परिसछेद : गणधर, समवशरण, अन्य राजन्मवर्ग एवं निर्वाण
इस सातवें परिच्छेदमें तीर्थंकर महावीरको केवलज्ञान प्राप्त हो जानेपर भो ६६ दिन तक उनका उपदेश न होनेसे उत्पन्न लोकचिन्ता, इन्द्रकी चतु. राईसे महाविद्वान् गौतम इन्द्रभूतिका महावीरकी समवशरणसभामें पहुँचना, महावोरके दर्शनमात्रसे उसके अहवारका दूर होना और महावीरका शिष्यत्व स्वीकार करना, श्रमण-दीक्षा लेते ही चार सम्यग्ज्ञानोंको प्राप्ति करना तथा प्रथम गणधरका पद प्राप्त करना, अग्निभूति, वायुभूति आदि उनके प्रकाण्ड विद्वान् १० भाईयोंका भी महावीरसे शास्त्रार्थके उद्देश्यसे उनके समवशरणमें पहुंचना और महावीरसे प्रभावित होकर उनके शिष्य होना तथा निम्रन्थ-दीक्षा ग्रहण करना, श्रावण कृष्णा एकमको ६६ दिन बाद महावीरको गौतम इन्द्रभूतिके सन्निधानसे प्रथम देशना होना, देशना-स्थल विपुलगिरिपर प्रथम समयशरणसभाका लगना, उपदेश श्रवणके लिए लालायित असंख्य नर-नारियों, १६ : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा