Book Title: Tiloypannatti Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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३५.
गाथा ९१ से १०१ तक उपमा प्रमाण के भेद प्रभेदों से प्रारम्भ कर पत्य, स्कन्ध, देश, प्रदेश, परमाणु आदि के स्वरूप का कथन किया गया है । अनन्तर १०२ से १३३ गाथा तक कहा गया है कि अनन्तानन्त परमाणुओं का उवसन्नासप्त स्कन्ध, आठ उवसन्नासन्नों का सन्नासन्न, आठ सन्नासनों का त्रुटिरे, आठ का घाट का शुश्राव रथरेणुओं का उत्तमभोगभूमिजबाला, इसी प्रकार उत्तरोतर आठ-आठ गुणित मध्यभोगभूमिजबाला, जघन्यभोगभूमिजबालाग्र, कर्मभूमिजबालाय, लीख, जूं ं, जो और उत्सेधांगुल होता है। पांच सौ उत्सेधां गुलों का एक प्रमाणांगुल होता है । भरतऐरावत क्षेत्र में भिन्न-भिन्न काल में होने वाले मनुष्यों का अंगुल आत्मांगुल कहा जाता है । इनमें उत्सेधांगुल से नर-नारकादि के शरीर की ऊँचाई और चतुर्निकाय देवों के भवन व नगरादि का प्रमाण जाना जाता है । द्वीप-समुद्र, शैल, वेदी, नदी, कुण्ड, जगती एवं क्षेत्रों के विस्तारादि का प्रमाण प्रमाणांगुल से ज्ञात होता है । भृंगार, कलश, दर्पण, भेरी, हल, मूसल, सिंहासन एवं मनुष्यों के निवासस्थान व नगरादि तथा उद्यान श्रादि के विस्तारादि का प्रमाण श्रात्मांगुल से बतलाया जाता है | योजन का प्रमाण इस प्रकार है - ६ अंगुलों का पाद, २ पादों का वितस्ति, २ वितस्तियों का हाथ, २ हाथ का रिक्कु, २ रिक्कुओं का धनुष २००० धनुष का कोस श्रौर ४ कोस का एक योजन होता है ।
उपर्युक्त वर्णन करने के बाद ग्रन्थकार अपने प्रकृतविषय- लोक के सामान्य स्वरूप --- का कथन करते हैं । अनादिनिधन व छह द्रव्यों से व्याप्त लोक - अधः मध्य और ऊर्ध्व के भेद से विभक्त है । ग्रंथकार ने इनका आकार-प्रकार, विस्तार, क्षेत्रफल व घनफल आदि विस्तृत रूप में वर्णित किया है । अधोलोक का आकार बेत्रासन के समान, मध्यलोक का आकार, खड़े किये हुये मृदंग के ऊर्ध्वभाग के समान और ऊर्ध्वलोक का आकार खड़े किये हुए मृदंग के समान है । (गा. १३० - १३८ ) । आगे तीनों लोकों में से प्रत्येक के सामान्य, दो चतुरस्र ( ऊर्ध्वायत और तिर्यगायत ), यव, मुरज, यत्रमध्य, मन्दर, दृष्य और गिरिकटक ये आठ भाव भेद करके उनका पृथक्-पृथक् घनफल निकाल कर बतलाया है । यह सम्पूर्ण विषय जटिल गति से सम्बद्ध है जिसका पूर्ण खुलासा प्रस्तुत संस्करण में विदुषी टीकाकर्त्री माताजी चित्रों के माध्यम से किया है । रुचिशील पाठक के लिए अब यह जटिल नहीं रह गया है | गाथा ६१ की संदृष्टि ( = १६ ब ख ख ) को विशेषार्थ में पूर्णतः स्पष्ट कर दिया गया है ।
महाधिकार के अन्त में तीन वातवलयों का आकार और भिन्न-भिन्न स्थानों पर उनकी मोटाई का प्रमाण (२७१ - २६५) बतलाया गया है । अन्त में तीन गद्य खण्ड हैं । प्रथम गद्यखण्ड लोक के पर्यन्तभागों में स्थित वातवलयों का क्षेत्र प्रमाण बताता है। दूसरे गद्यखण्ड में आठ पृथिवियों के नीचे स्थित बातक्षेत्रों का घनफल निकाला गया है। तीसरे खण्ड में आठ प्रविवियों