Book Title: Tandulvaicharik Prakirnakam
Author(s): Ambikadutta Oza
Publisher: Sadhumargi Jain Hitkarini Samstha

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Page 26
________________ SinMahavir Jain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Straitsegarul Gyarmandir 353VIEMBRESSIERESSEERESROSESS! भावार्थ-जिसमें प्रयुचि उत्पन्न होती है और जो अशुचिरूप है ऐसे गर्भ में कोई पापी जीव उत्कृष्ठ बारह वर्ष तक निवास करता है। जायमाणस जं दुक्खं, मरमाणस्स वा पुणो । तेण दुक्खेण संमूढो, जाई सरह णाप्पणी ॥२५॥ छाया-जायमानस्य यदुःख, नियमाणस्य वा पुनः । तेन दुःसेन समूढी, जाति स्मरति नात्मनः ॥२५।। भावार्थ-गर्भ से बाहर निकलते समय तथा मरगण के समय प्राणी को जो दुःख होता है उससे मूढ बना हुआ पाणी अपने पूर्व जन्म को स्मरण नहीं कर सकता है। वीसरसरं रसंतो जो सो, जोगी मुहायो निष्फिडइ । माऊए अप्पणोऽवि य वेयणमउलं जणेमाणो ॥२६॥ छाया-विस्वरस्वर रसन यः स, योनिमुखानिष्कामति । मातुरात्मना बेदनामतुला अन्यन् ॥२६॥ भावार्थ-करुणाजनक शब्दों में रुदन करता हुआ जीव योनिवार से बाहर निकलता है। वह माता को लास्यन्त पीड़ा उत्पन्न करता है तथा स्वयं भी पीड़ा अनुभव करता है। गम्भघरयम्मि जीवो, कुंभीपागम्मि गरयसंकासे । वुत्थो अमिझमज्झे, असुइप्पभवे असुल्यम्मि ||२७|| छाया-गर्भरहे जीवा, कुम्भीपाके नरकसंकाशे । स्थितोऽमेध्यमध्ये, अशुचिप्रभवे अशुचिके ॥२७॥ भावार्थ-गर्भ रूप गृह कुम्भीपाक नरक के समान है। वह स्वयं अशुचि है और अशुचि को ही उत्पन्न करता है। उसमें जीव अपवित्र पदार्थों के मध्य में निवास करता है। For Private And Personal Use Only

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