Book Title: Tandulvaicharik Prakirnakam
Author(s): Ambikadutta Oza
Publisher: Sadhumargi Jain Hitkarini Samstha

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Page 77
________________ san Manavi din Aranana Kendre www.kobatirtm.org Acharya Sur Kassegarmur Gyarmandir छाया-सा सलु दुष्प्रतिपूरा, वर्चस्कुटी द्विपदा नयछिद्रा । उत्कटगन्धविलिप्ता, बालजनोऽतिमर्छितं गृद्धः ॥१०॥ भावार्थ-यह शरीर विष्ठा की कुटी है। इसका पूरण करना अशक्य है। यह दो पैर और नव छिद्रों से युक्त है। इसमें असहा दुर्गन्ध भरा हुभा तथापि भवानी जन इस कुत्सित शरीर में अत्यन्त श्रासक्त हो रहे हैं ॥१०३।। जं पेमरागरतो, अवयासेऊण गूढमुत्तोलि । दैतमलचिकणंग, सीसघड़ीकजियं पियसि ॥१०४ ॥ छाया-यस्मात् प्रेमरागरक्तः, अवकाश्य पुनः गढ मुसोलिम । दन्तमलपिकणाझ', शीर्षपटीकाम्जिकं पिबसि ॥१०४॥ भावार्थ-अज्ञानी जीव कामगग से अनुरञ्जित होकर नायिका की योनि और अपने लिंग को उघाड़ कर दाँत तथा शरीर के मन से चिकण शरीर का पालिंगन करते हैं। तथा शिर के ख? अपवित्र रस को पान करते हैं ॥ १०४ ।। दंतमुसलेसु गहणं, गयाण मंसे य ससयमीयाणं । बालेसु चमरीणं, चम्मणहे दीवियाणं य ॥१०५॥ छाया-दन्तमुशलेषु प्रहयां, गजाना मासे च शशकमृगाण।। बालेषु च चमरीणा, चर्मनसे दीपिकानाञ्च ॥१०५॥ भावार्थ-मनुष्य गण दाँतों के लिये हाथी को और मांस के लिये शशक और मग को तथा बाल के लिये चमरी गाय को और धर्म नख के लिये व्याघ्र को प्रहण करते हैं। अतः इनके अंग तो सर्वसाधारण के भोग के काम में आते हैं परन्तु मनुष्य के अङ्ग प्रत्यङ्ग भोग में नहीं आते हैं। इसलिए मनुष्य को इस शरीर में आदर न रखते हुए धर्म का आचरण करना चाहिये ।। १०५ ।। पूइयकाए य इह, चवणमुहे निचकालावीसत्थो । आइक्खसु सम्भावं, किम्मिसि गिद्धी तुम मूढ ॥१०६।। छाया-पूतिक कार्य चेह, ब्यवनमुखे नित्य कालविश्वस्तः । आख्याहि सद्भाव, किमसि राखस्त्वं मूढ़ ! ॥१०६॥ SEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE For Private And Personal use only

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