________________
Son Mahavir Jain Aradhana Kendra
Acharya Sari
K
a rl Gymrandir
39393000300002393323333333333333333
भावार्थ-मुर्ख ! यह शरीर अपवित्र पदायों का घर है तथा मरयाशील है। इसमें सदा विश्वास करते हुए तुम क्यों आसक्त हो रहे हो ?इसका सत्य कारण बताओ ॥ १०६ ॥
दंताबि अकज्जकरा, बाला वि य वड्डमाण वीभच्छा | चम्म॑वि य बीमच्छ, भण किं तंसि तं गो रागं ॥१०७॥ छाया-दन्ता अप्य कार्यकराः, बाला अपि वर्धमानाः बीभत्साः। चर्माऽपि बीभत्स, मण कि तस्मिन् त्वं गतो रागम् ।।१०७॥
भावार्थ:-दाँत भी किसी काम के नही है यानी अपवित्र हैं तथा बाल भी बढ़े हुए घृणा के योग्य ही हैं एवं चर्म भी पृणास्पद है फिर बतलायो तुम इस शरीर में क्यों राग रखते हो ? ॥ १०७ ।।
सिंभे पित्तं मुत्ते, गृहमि य वसाइ दंत कुडीसु । भणसु किमत्थं तुज्झ, असुइमि विवढिओ रागो॥ १० ॥ छाया-सिम्भे पित्त, मूत्र, गूथे व पसाया दन्तकुड्यासु । भण किमर्थ तथाशनी, विवर्षिता रागः ॥ १०८॥
भावार्थः-यह शरीर कफ, पित्त, मूत्र, विष्ठा, चर्थी और हड़ियों का घर है। बतलायो इस अपवित्र वस्तु में तुम्हारा राग क्यों अधिक हुआ है ॥१०८ ।।
जंघडियासु ऊरू, पइडिया तडिया कडी पिट्ठी । कडियट्टिवेढियाई, अट्ठारसपिट्टि अट्ठीणि ॥ १०६ ।। छाया-जङ घास्थितयोरूरू, प्रतिष्ठितो तत्स्थिता कटिपृष्ठिः । कटचस्थि वेष्ठितान्यष्टादश पृष्ठ्यस्थीनि ॥ १०६ ॥
भावार्थः-जङ था की हड़ियों के कार ऊरु स्थित है और ऊक के ऊपर कटिभाग स्थित है तथा कटि के ऊपर पृष्ठभाग स्थित है और पृष्ठ में अठारह दहियाँ वेष्ठित हैं। शरीर का यही स्वरूप है ।। १०१।।
THEHRESERSTATERITTENNISESENTSHRISTSHASTROH
For Private And Personal Use Only