Book Title: Tandulvaicharik Prakirnakam
Author(s): Ambikadutta Oza
Publisher: Sadhumargi Jain Hitkarini Samstha

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Page 79
________________ SA.Mahavir Jain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Sa K asagarmur Gyarmandir दो अच्छि अट्टियाई, सोलस गीवट्ठिया मुणेयव्वा । पिट्ठी पइट्ठियायो, वारस किल पंसुली हुँति ॥ ११०॥ छाया-बै अचयस्थिनी, षोडशचीवास्थीनि ज्ञातव्यानि । पृष्ठिप्रतिष्ठिताः द्वादश, किल पंशुल्यो भवन्ति ।।११०॥ भावार्थ:- दो नेत्र की हड्डियाँ होती हैं और सोलह प्रोवा की हड़ियाँ होती हैं। एवं पीठ में स्थित बारह पसलियाँ होती हैं। अट्टिय कविणे, सिरणहारुबंधणे मंस चम्मलेव मि । विट्ठाकोडागारे, को. वष परोवमे रागी ॥ १११ ॥ छाया-अस्थि कठिने, शिरास्नायुबन्धने गौपचर्मलेपे । विष्ठाकोष्ठागारे, को वोरहोपमे रागः ॥११॥ भावार्थ:-हहियों के होने से जो कठिन है यथा शिरा और नसों के द्वारा जो बैंधा हुआ है एवं चमड़ा और मांस से जो लिप्त तथा विद्या का जो कोठागार है ऐसे पाखाने के घर के तुल्य इस शरीर में राग करना क्या है ? ॥ १११ ।। जह नाम वच्च कूवो, णिचं भिणिभिणिभणंतकायकली। किमिएहिं सुलुसुलायइ, सोएहिं य पूइयं वह ॥ ११२ ॥ छाया-यथानाम वर्च:कुपो, नित्यं भिणिभिरिएभएकाकलि | कृमिभिः सुलसुलायते, सोतीभिश्च पूतिकं वहति ॥१२॥ भावार्थ:-जैसे विष्ठा से भरा हुमा कुनों होता है, उसके पास काँव काँव करते हुए कौए परस्पर लड़ते रहते हैं और विष्ठा के कीड़े उसके अन्दर चलते रहते हैं जिससे सुन सुन शब्द होता रहता है तथा बदबूदार स्रोत बहते रहते हैं। उस कूप के समान ही इस शरीर की दशा रोगी अवस्था में और मरने पर होती है ।। ११२॥ उद्धियणयणं खगमुहविकट्टियं, विपहरणबाहुलयं । अंत विकट्टयमालं, सीस घडी पागडी घोरं ॥ ११३ ॥ छाया-उद्वतनयन, खगमुखविकर्शित विप्रकीर्णबाहुलतम् । अन्तर्विकर्षितमालं, शीर्षघटी प्रकटघोरम ॥१३॥ For Private And Personal use only

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