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SA.Mahavir Jain AradhanaKendra
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भएणं स्यंति अण्णं स्मंति, अएणस्स दिति उन्लावं । अण्णो कडअंतरिओ, अण्णो पयर्डतरे ठविओ ॥ १२४ ।। छाया-अन्य रजयन्ति अन्य रमयन्ति, अन्यस्य ददत्युल्लापं । अन्यः कटान्तरितः, अन्यः पटकान्तरे स्थापितः।।१२४॥
भावार्थ-कई नियाँ दो तीन या इससे भी अधिक पुरुषों के साथ प्रेम रखती हैं, एक को प्रेम के साथ देख कर काम उत्पन्न करती हैं और अन्य के साथ कीड़ा करती हैं एवं तीसरे के साथ वार्तालाप करती हैं एवं किसी को चटाई के पर्दे के अन्दर छिपा कर रखती हैं और किसी को कपड़े के पर्दे के अन्दर छिपा देती हैं। उनके दुराचार का ज्ञान जब होजाता है तब जानने वाले पति भादि को विष देकर मार डालती हैं। वे अपने भाव को समझाने के लिये अपने जार के सम्मुख पृथ्वी पर कुछ लिखती हैं अथवा तृण नखारती ॥ १२४ ॥
गंगाए वालुयाए, सायरे जलं हिमवयो य परिमाणं । उग्गस्स तवस्स गई, गम्भुप्पत्तिं य विलयाए ॥ १२५॥ सीहे कुडवुयारस्स, पुट्टलं कुकुहाईयं अस्से । जाणंति बुद्धिमंता, महिला हिययं ण जाणंति ॥ १२५ ॥ छाया-गमाया वालुका, सागरे जलं हिमवतः परिमाणम् । उपस्य तपसः गति, गोत्परिश्च वनितायाः ॥ १२ ॥ सिहे कुएब्युकार, पुदद्दल कुक हादिकमश्वे । जानन्ति बुद्धिमन्त, महिलाहदर्य न जानन्ति ।। १२६॥
भावार्थ-गङ्गा नदी की बालुका को, समुद्र के जल को एवं हिमवान पर्वत के परिमाण को बुद्धिमान् पुरुष जानते हैं, तवा तीव्र तपस्या का फल, स्त्री के गर्भ का बालक, सिंह के पीठ का बाल, अपने पेट के पदार्थ तथा गमन के समय भश्व का शब्द, इनको भी बुद्धिमान पुरुष जानते हैं परन्तु स्त्री के अन्तःकरण को नहीं जान सकते हैं।
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