Book Title: Tandulvaicharik Prakirnakam
Author(s): Ambikadutta Oza
Publisher: Sadhumargi Jain Hitkarini Samstha

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Page 76
________________ SinMahavir dain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Sur Keilassagarmur yamandir अंजण गुण सुविसुद्धं, रहाणुब्बट्टणगुणेहिं सुकुमालं, पुप्फुम्मीसियकेसं, जणेइ बालस्स तं राग ॥ १०॥ छाया-अजनगुणसुविशुद्ध', स्नानोद्वर्तनगुणेः सुकुमार । पुष्पोन्मिश्रितकेशं, जनयति बालस्य तद्रागम् ॥१०॥ भावार्थ:-आँखें अञ्जन लगाने से तथा अङ्ग प्रत्यङ्गों में भूषण धारण करने से एवं स्नान उवर्तन आदि शरीर के संस्कारों से तथा केशों में पुष्प धारण करने से कृत्रिम सुन्दरता से पूर्ण नायिका का मुख अज्ञानी जीव को राग उत्पन्न करता है ।। १०० ।। जं सीसपूरउत्ति य, पुफाई भणंति मंदविमाणा। पुष्पाई चिप ताई, सीसस्स य पूरय सुणह ॥१०१।। छाया-यानि शीर्षपूरकानीति च, पुष्पाणि भणन्ति मन्दविज्ञानाः । पुष्पाण्येव तानि, शीर्षस्य च पूरकं शृणत ॥११॥ भावार्थ:-कामासक्त पुरुष जिन पुष्पों को मस्तक का प्रक यानी भूषण बतलाते हैं वे पुष्प वस्तुत: मस्तक के परक नहीं हैं ये तो पुरुष ही हैं। मस्तक के पूरक यानी पूर्ण करने वाले क्या पदार्थ हैं? सो मैं बतलाता आप सुने ।। १०१।। मेश्रो बसा य रसिया, खेल सिंघाण ए य छुभ एयं । अह सीस पूरओ भे, नियग सरीरंमि साहीणो॥ १०२ । छाया-मैदो वसा च रसिका, खेल सिंघानकच क्षिपैतान । अथ शीर्षपूरको भवता, निजक शरीरे स्थाधीनः ।।१०२॥ भावार्थ:-मेंद, चर्बी, रसिका (पीव), खंखार और नाक का मन ये सब आपके शिर को पूरण करने वाले है, ये सब आपके आधीन हैं अतः अपने शरीर के ऊपर इन्हें नठा उठा कर आप डाल लीजिये । बस इससे अपने शिर को भूषित हुआ समझ लीजिये ॥ १०२॥ सा किर दुप्पडिपूरा, वञ्चकुटी दुप्पया नवच्छिद्दा । उकडगंधविलित्ता, बालजणो अइमुच्चियं गिद्धो ॥१३॥ For Private And Pemanat Use Only

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