Book Title: Tandulvaicharik Prakirnakam
Author(s): Ambikadutta Oza
Publisher: Sadhumargi Jain Hitkarini Samstha

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Page 74
________________ SinMahavir dain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya.sin.kalinssagarmurnGyanmandir छाया-कः शटन पतन विकिरण विध्वंसन च्यवन मरणध । देहेऽभिलापः, कथित कठिन काष्ठ भूते ॥३॥ भावार्थ:-यह शरीर कुष्ट आदि व्याधि होने पर गल कर गिर जाता है। तलवार आदि के प्रहार होने पर कट कर गिर जाता है। यह स्वभाव से ही नश्वर है। रोग बादि होने पर क्षीण हो जाता है। इसके हाथ पैर आदि अवयव नष्ट हो जाते हैं तथा एक दिन पूर्ण रूपेण यह मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार सड़े हुए कठिन काष्ठ की तरह इस शरीर में अभिलाष रखना क्या है ? ॥ १३ ॥ कागसुणगाण भक्खे, किमिकुलभते य बाहिमचे या देहमि मच्छभत्ते, सुसाणभत्तम्मि को रागो ॥६४|| छाया-काकवानयोर्भक्ष्ये, कृमिकुल भक्तेच व्याधिभक्ते च । देहे मत्स्यभक्ते, श्मशानभने च को रागः ॥४॥ भावार्थ:-यह शरीर काक और कुत्तों का भक्ष्य है तथा कीड़े, व्याधि और मछलियों का भी भोजन है तथा श्मशान में रहने वाले गीध भादि का भय है रोमे शरीर में राग रखना क्या है॥४॥ असुइ अमिज्म पुगणं कुणिमकलेवर कुडिं परिसवंति । आगंतुयसं ठवियं, नवछिडमसासयं जाणे । ॥शा छाया-अशुचि अमेध्यपूर्ण, कुणिम कलेवर कुटी परिसवदिति । आगन्तुकसंस्थापितं, नवच्छिद्रमशाश्वतं जानीहि ॥६५॥ भावार्थ:-यह शरीर अपवित्र है, अपवित्र वस्तुभों से पूर्ण है। मांस और हड्डी का घर है। चारों ओर इस शरीर में मत्त निकलता रहता है। माता पिता के रज वीर्य से सपन्न हुआ है। नव छिद्रों से यह युक्त है। यह स्थिर नहीं हैं ऐसा जानो ॥ ५ ॥ पिच्छसि मुहं सतिलयं, सविसेसं रायएण अहरेणं । सकडक्खं सवियार, तरलच्छिं जुब्बणिस्थीए ॥१६॥ छाया–पश्यसि मुख सतिलक, सविशेषं रागवताधरेण । सकटाक्षं सविकार, तरलाक्षं युवस्त्रियाः ॥ ६ ॥ BEESUSESBEHEERESETESEBESESSERE For Private And Personal use only

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