Book Title: Tandulvaicharik Prakirnakam
Author(s): Ambikadutta Oza
Publisher: Sadhumargi Jain Hitkarini Samstha

View full book text
Previous | Next

Page 63
________________ SinMahavir Jain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Sur Keilassagarmur yamandir है तो भी यह शरीर स्थिर नही रहता है किन्तु क्षण क्षण में नष्ट होता रहता है । इष्ट आहार आदि के लाभ होने से वृद्धि को प्राप्त होता है और नहीं प्राप्त होने से क्षीण होजाता है। यह स्वभावतः विनाशशील है। पहले या पीछे यह अवश्य ही जीव के द्वारा छोड़ दिया जाता है। एअस्स वियाई पाउसो! पाणुपुब्वेणं अट्ठारस्सा य पिटकरण्डगसंधिो पारस पंसलिया करंडा छप्पंसुलिए कडाहे विहत्थिया कुच्छी चउरंगुलिया गीषा चउ पलिया जिब्भा दुपलियाणि अच्छीणि चउ कवालं सिरं बत्तीसं दंता सत्गुलिया जीहा अधुट्ठपलियं हिययं पणवीसं पलाई कालिज्जं दो अंता पंच वामा पण्णता, तं जहा-धूलंते य, तणुयंते य, तत्थणं जे से थूलते तेण उच्चारे परिणमइ । तत्थ णं जे से तणुयंते तेणं पासवणे परिणमइ, दो पासा पएणत्ता तं जहा-बामे पासे दाहिणपासे य । तत्थ णं जे से वामे पासे से सुहपरिणामे, तत्थ णं जे से दाहिणे पास से दुहपरिणामे । 11EEEEEEEEEEEEEEEEEEEE! छाया-एतस्यापि आयुकन् । आनुपूव्या अष्टादश च पृष्टिकरण्डक सन्धयः, द्वादश पाशुलिकाः करण्डकाः, पट् पांशुलिकाः फटाहाः, वितस्तिका कुक्षिः, चतुरालिका ग्रीवा, चतुपलिका जिव्हा, विपलिके अक्षिणी, चतुष्कपाले शिरः, द्वात्रिंशदन्ताः, सप्तान लिका जिव्हा, साद्ध त्रिपलं हृदयं, पञ्चविंशतिपलानि कालज, द्व अन्त्रे, पञ्च वामे प्रज्ञप्ते, तद्यथा स्थूलान्त्रच तन्वन्त्रञ्च । तत्र यत् स्थूलान्त्र तेनोचारः परिणामति । तत्र यत् सन्वन्त्र तन प्रसूबा परिणमात । देपावें प्रशतं तद्यथा वाम पाच, दणिपाश्चञ्च । तत्र यत् वाम पाश्च तत् सुखपरिणाम, तत्र यत् दक्षिणं पार्श्व तत दुःखपरिणामम । For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103