Book Title: Tandulvaicharik Prakirnakam
Author(s): Ambikadutta Oza
Publisher: Sadhumargi Jain Hitkarini Samstha

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Page 65
________________ SinMahavir Jain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Sur Kallassagerar Gyanmandir खुर्चति जाणंसि निरुवग्याएणं चक्खुसोयघाणजीहाबलं य भवइ, जाणंसि उवग्याएणं चक्खुसोयघाणजीहावलं उपहम्मइ ॥ छाया-आयुष्मन् ! अस्मिन शरीरे षष्टिः सन्धिशतं, सप्लोरारं मर्मशतं भवति। श्रीण्यस्थिदामशतानि, नव स्नाय शतानि, सप्तशिराशतानि, पञ्च पेशीशतानि भव धमन्यः, नवनवतिश्च रोमपशतसहस्राणि विनाकेशश्मश्रुभिः, सह केशश्मथ मिा सास्तिसी रोमकूपकोटयः । आयुष्मन ! अस्मिन शरीरे षष्टिः शिराणा, शतं नाभिप्रभवाणा उर्ध्वगामिनीना शिरस्युपगताना याः रसहरण्य इत्युच्यन्ते । यासा निरुपपातेन चक्षुःश्रोत्रधारा जिहाबलख भवति । यासाञ्चोपघातेन चक्षःश्रोत्रमाणजिहाथलमुपहन्यते । भावार्य-हे यायुष्मन ! इस शरीर में १६० सन्धिस्थान होते हैं। अंगुलि आदि साड़ियों के मिलने का जो स्थान है नसे सन्धिस्थान कहते हैं। एवं १०७ मर्मस्थान होते हैं। तथाड़ियों की ३०० मालायें होती है। इलियों को बन्धन करने वाली शिराये जो स्नायु कहलाती हैं वे १०० होती हैं। तथा सात सौ नसे होती हैं। पांच सौ पेशी होती हैं । जिन में रस बहता रहता है ऐसी गाड़ियाँ नी होती हैं। दाढी मुंछ के केशों के बिना निमागावे लाख रोम कूप होते हैं। और दाढी मूड के केशों को मिला कर साढे तीन कोटि रोमकूप होते हैं। पुरुष के हम शरीर में नाभि से सत्पन्न होने वाली सात सौ शिराय (नसे होती हैं उनमें से एक मी माठ शिराय नाभि से निकल कर शिर में जाकर मिलती है। पनको सहरणी कहते हैं। ऊपर जाने वाली जन नाड़ियों की महायता से मनुष्य के नेत्र, मोच, प्राण और जिल्हा का बल बुद्धि को प्राप्त होता है। तथा लन नाहियों के नष्ट होने से नेत्र, श्रोत्र, प्राण और जिला का यल नष्ट हो जाता है। पाउसो! इमम्मि सरीरए सहि सिरासयं नाभिप्पभवाणं अहोगामिणीण पायतलमुवगयाणं जाणंसि निरुवग्याए 38183333333333RBE EBEJAUSERS For Private And Personal use only

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