Book Title: Tandulvaicharik Prakirnakam
Author(s): Ambikadutta Oza
Publisher: Sadhumargi Jain Hitkarini Samstha
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उसो ! इमस्स जंतुस्स सडिसिरासयं नाभिप्यभवाणं अहो गामिणीयं गुदप्पविद्वाणं जाणंसि निरुवग्घाएणं पुरीसवाउ कम्मं पचतइ | ताणं चेव उवग्याएणं मुत्त पुरीसवाउनिरोहेणं अरिसा खुन्भंति पंडु रोगी हवइ ।
छाया - आयुष्मन् ! अस्य जन्तोः षष्टिः शिराणां शतं नाभिप्रभवाणा मधोगामिनीना गुदप्रविष्टानां यासां निरुपघातेन मूत्रपुरीष कर्म प्रवर्तते । तासाचीपपातेन गुरुपुरीषवायु निरोधेन अशसि क्षुभ्यन्ति पाण्डुरोगश्च भवति ।
भावार्थ - हे आयुष्मन् ! इस जन्तु की नाभि से उत्पन्न होकर नीचे की ओर जाकर गुदा में मिलने वाली १६० नाड़ियाँ होती हैं। जिनके ठीक रहने पर मूत्र, मन और वायु का निकलना उचित रूप में होता है और इनके विकृत होने पर मूत्र मल और वायु के निरोध हो जाने से बवासीर की व्याधि और पाण्डुरोग उत्पन्न होता है ।
आउसो ! इमस्स जंतुस्स पणवीसं सिराओ पित्तवारिणीओ पणवीसं सिराओ सिंभघारिणीओ दस सिराओ सुकधारिणीओ सत्तसिरासयाई पुरीसस्स तीसूणाई इत्थियाए वीसूणाई पंडगस्स । आउसो ! इमस्स जंतुस्स सहिरस्स आढयं वसाए श्रद्धाढयं मत्थुलु'गस्स पत्थो मुत्तस्स आइयं पुरीसस्स पत्थो पित्तस्स कुडवो सिंभस्स कुडवी सुकस्स अद्धकुडवो, जं जाहे दुई भवइ तं ताहे अइप्यमाणं भवइ, पंचकोडे पुरिले छ कोट्टा इत्थिया, नवसोए पुरिसे, इक्कारस सोया इत्थिया, पंच पेसीसयाई पुरिसस्स, तीसूणाई इत्थिया वीभ्रूणाई पंडगस्स । ( सूत्र १६ )
छाया - आयुष्मन् ! अस्य जन्तोः पंचविशतिः शिराः पित्राधारिण्यः पंचविंशतिः शिराः श्लेष्मधारिण्यः दशशिराः शुकधारिण्यः सप्त शिराशतानि पुरुषस्य, त्रिंशदूनाः स्त्रियाः, विंशत्यूनाःपंडकस्य । आयुष्मन् ! अस्य जन्तोः रुधिरस्याटकं, वसाया अर्द्धाढकं, मस्तुलुङ्गस्य प्रस्थः, मूत्र
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