Book Title: Tandulvaicharik Prakirnakam
Author(s): Ambikadutta Oza
Publisher: Sadhumargi Jain Hitkarini Samstha

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Page 30
________________ Shn Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सत्तमीय पवंचा उ, जं नरो दसमस्सियो । निच्छुभइ चिक्कणं खेलं, खासई य खणे खणे ||३८|| छाया - सप्तमी च प्रपञ्चा तु या नरो दशा माश्रितः । निक्षिपति चिक्वणं श्लेष्मारणं, कासते च क्षणे क्षणे ॥ २८ ॥ भावार्थ- सातवीं दशा प्रपचा कहलाती है। इसके आने पर मनुष्य चिकना कफ मुख से बाहर फेंकता रहता है और क्षण क्षण में खांसता रहता है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संकुइयवली चम्मो, संपत्तो अट्टमीं दसं । नारीणं य श्रणिट्टो य, जराए परिणामिओ || ३६ || छाया - सङ्कचित बलिचर्मा, सम्प्राप्तोऽष्टमी दश । नारीणाञ्चानिष्टश्च जरया परिणामितः ॥ ३६ ॥ भावार्थ- - यह मनुष्य जब आठवीं दशा को प्राप्त होता है तब उसके शरीर का चमड़ा संकुचित हो जाता है और अत्यन्त वृद्धता को प्राप्त होकर त्रियों का अप्रिय होजाता है। नवमी मुम्ही नाम, जं नरो दसमस्सिओ । जराघरे विणस्संते, जीवो वसह अकाम 3 ||४०| छाया - नवमी मुन्मुखी नाम्नी या नरो दशा माश्रितः । जरागृहे विनश्यति, जीवो वसत्यकामतः ॥ ४० ॥ भावार्थ-नवमी दशा का नाम मुन्मुखी है। इस दशा को प्राप्त होकर जीव विषय की इच्छा से रहित हो जाता है और शरीर वृद्धता का घर होकर नष्ट प्राय हो जाता है 1 हीण भिण्णसरो दीणो, विवरीयो विचित्तओ । दुब्बलो दुक्खिओ सुयई, संपत्तो दसमीं दस ॥४१॥ छाया - हीन भिक्षस्वरो दीनो, विपरीतो विचित्तकः । दुर्बलो दुःखितः स्वपिति, सम्प्रातो दशमी दशाम् ॥४१॥ For Private And Personal Use Only

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