Book Title: Tandulvaicharik Prakirnakam
Author(s): Ambikadutta Oza
Publisher: Sadhumargi Jain Hitkarini Samstha

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Page 43
________________ SheMahavir.Jain AradhanaKendra www.kobairm.org Acharya Sri Kasagar Gyanmandir था। उनका स्वर सिंह के शब्द के समान दूर तक जाने वाला और मधुर होता था। उनके शरीर में विचरने वाले वायु का वेग शरीर के अनुकूल होता था इसलिए उनके उदर में वायु के वेग से उत्पन्न होने वाला गुल्म रोग उत्पन्न नहीं होता था। उनका गुदाशय कपक्षी के गुवाशय के समान नीरोग होता था। उनकी जाठराग्नि कबूतर की जाठराग्नि के समान भोजन किये हुए माहार को शीघ्र पचाने वाली अतिती होती थी । अतः उनको अजीर्ण रोग कभी उत्पन्न नहीं होता था। जैसे पक्षी की गुदा में मल का लेप नहीं लगता है उसी तरह उनकी गुदा में भी मल विसर्जन करते समय उसका लेप नहीं लगता था। उनकी पीठ, दोनों पाव भाग और ठरू उचित परिमाण वाले होते थे। उनके मुख से निकलने वाला वायु कमन, पद्म और कुछ नामक गन्ध द्रव्य के समान सुन्दर गन्धयुक्त होता था। उनके शरीर की छवि मनोहर होती थी तथा चमढ़ी कोमल होती थी। वे नीरोग तथा उत्तम लक्षणों से युक्त एवं अनुपम शरीर वाले होते थे। उनके शरीर में शीघ्र निवृत्त होने वाला मक्ष तथा विलम्ब से मिटने वाला मन, प्रस्वेद, कलङ्क, धूलि एवं मलिनता उत्पन्न करने वाली चेष्टा ये सब नहीं होते थे। तथा मनभीर विष्ठा का लेप भी उनमें नहीं लगता था। उनके माया सनके शरीर की शोभा से चमकते रहते थे। उनका संहनन वन ऋषभ नाराच होता था । उनका संस्थान समचतुरन होता था। वे बः हजार धनुष बम्ये होते थे। वे मनुष्य स्वभाव से दी भव, स्वभाव से ही विनीत, स्वभाव से ही उपशान्त होते थे। उनके कोष मान माया और लोभ स्वभाव से ही पतले होते थे। वे मनोहर और परिणाम में सुख देने वाली मृदुता से सम्पन्न होते थे। उनमें कपट पूर्ण मृदुता नही होती थी। बे समस्त क्रियाओं में शान्ति पूर्वक चेष्टा करने वाले होते थे। वे उस क्षेत्र के योग्य समस्त कल्याणों के पात्र भीर बड़े लोगों का विनय करने वाले और अल इच्छा वाले होते थे। वे धन धान्य आदि का सवय नहीं करते थे तथा तीन कोष नही करते थे। ये तलवार चला कर तथा लेखन कला द्वारा तथा कृषि कर्म से एवं वाणिज्य कर्म से जीविका का साधन नहीं करते थे। वे फल्प वृक्ष For Private And Personal Use Only

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