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( वर्तमान में पू. प्रा. म.श्री विजयधर्मसूरीश्वरजी म.)
आपके यहाँ आज तक बोली का भाव प्रतिमन ढाई रूपया था और वह सब देवद्रव्य गिना जाता था। वह ढाई रूपया देवद्रव्य का कायम रखकर मन का भाव आपने पांच रूपया करना ठहराया। शेष रुपये ढाई साधारण खाते में ले जाने का आपने नक्की किया, यह हमको शास्त्रीय दृष्टि से उचित नहीं लगता। आज तो आपने स्वप्नों की बोली में यह कल्पना की, कल प्रभु की आरती पूजा आदि की बोली में भी इस प्रकार की कल्पना करेंगे तो क्या परिणाम आवेगा? अतः जो था वह सर्वोत्तम था। स्वप्नों की बोली के ढाई रूपये कायम रखिये और साधारण की आय के लिए स्वप्नों की बोली में कोई भी परिवर्तन किये बिना दूसरा उपाय ढूंढिये; यह अधिक उत्तम है। इतना ही । धर्मकरणी में उद्यत रहें।
ईडर आ. सु. १४
पूज्य आचार्य महाराज श्रीमद् विजय लब्धिसूरिजी महाराज की आज्ञा से तत्र सुश्रावक देवगुरु भक्तिकारक जमनादास मोरारजी योग्य धर्मलाभ बांचना।
आपका पत्र मिला । बांच कर समाचार जाने । आप देवद्रव्य के भाव २॥ को पांच करके २॥ साधारण खाते में ले जाना चाहते हो, यह जाना परन्तु ऐसा होने से जो पच्चीस मन घी बोलेने की भावना वाला होगा, वह बारह मन बोलेगा, इसलिए कुल मिलाकर देवद्रव्य की हानि होने का भय रहता है अतः ऐसा
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[ स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य