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'महाराजश्री के दिये गये उतर सम्बन्धी बात मैंने किसी श्रावक के मुख से सुनो कि सं. १९३८ में महाराजश्री के तथा स्वामी अमरसिंहजी ढंढक के परस्पर प्रश्नोत्तर हए थे । तब मैंने महाराजश्री से विनती की कि मैं उन प्रश्नों को देखना चाहता हूं। तब महाराजश्री ने कृपा करके वे प्रश्न मंगवाकर मुझे दिये । मैंने वे सर्व प्रश्नोत्तर बांच कर फिर विनती को कि, 'यदि आप आज्ञा दें तो मेरी इच्छा है कि इस गप्पदीपिका समीर' में वे सब प्रश्नोतर सम्मिलत कर दूं । तब महाराजश्री ने फरमाया कि 'कोई आवश्यकता नहीं है । तुम्हें चाहिये तो ये अपने पास रख लो।' मैंने पुनः निवेदन किया कि-'मेरो इच्छा तो इन्हें जरूर छपवाने की है क्योंकि इन प्रश्नोत्तरों से बहुत सारे भव्य प्राणियों को लाभ प्राप्त होगा। तब महाराज श्री ने मुझ पर कृपा करके फरमाया कि-'तुम्हारी इच्छा ।, मैंने बे प्रश्नोत्तर यहां प्रस्तुत कर दिये हैं; वाचक दीर्घदृष्टि के साथ उनका अवलोकन करें।
___ उक्त उद्धरण से वाचकों को यह भी प्रतीत हो सकेगा कि-उस समय स्व. आ म. श्रीमद् विजयवल्लभसूरिजी महाराज का अभिप्राय भी यही था कि 'भगवान को माता को आये हए स्वप्न आदि को बोली से जो द्रव्य उत्पन्न हो, वह देवद्रव्य गिना जाता है।
(विक्रम सं २०२१ मगसर सुदी ९ रविवार ता. १३-१२६४ पेज ३६१-६२ । जैन प्रवचन वर्ष ३५ अंक ४१ )
[ 'जैन प्रवचन' के उपर्युक्त लेख से यह बात स्पष्ट रूप से सिद्ध हो जाती है कि, उसमें प्रकाशित पू. पाद आचार्य महाराजश्री विजयानन्द सूरीश्वरजी महाराजश्री के मन्तव्य को लिपिबद्ध करके पुस्तकाकार में प्रकाशित करने वाले आ.म.श्री विजयवल्लभ
स्वप्नद्रव्य, देवद्रव्य ]
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