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आपश्री ने बताया कि संघ जो ठहराव करे उसके अनुसार चला जा सकता है तो इस सम्बन्ध में आप श्री से नम्रता पूर्वक निवेदन है कि, जो प्रभु-भक्ति निमित्त अर्थात् आरती, पूजा आदि के लिए घी की बोली बोली जाती है, वह देवद्रव्य मे प्रत्येक स्थान में जाती है और प्रभु श्री महावीर देव माताश्री की कुक्षी में आये-यह कल्याणक का प्रसंग है और माताश्री ने तीर्थंकर के अपनी कुक्षी में आने पर महास्वप्न देखे, उन स्वप्नों से सम्बन्धित महोत्सव सुश्रावक पर्युषण में करते हैं, उसका निमित्त श्री प्रभु के सिवाय अन्य नहीं होता। ऐसे संयोगों में उस बोली की उपज को श्रावक साधारण खाते में ले जावे तो कोई दोष लगता है या नहीं ? साधारण खाते के पैसों को श्रावक अनेक प्रकार के कामों में लगाते हैं-जैसे स्नान करने, गरम पानी, साधु संतों के साथ किसी व्यक्ति को भेजने में होने वाले खर्चे में, पोस्ट के लिए टिकिट देने आदि में भी खर्च किये जाते हैं। तो स्वप्नों के घी की बोली की आय साधारण खाते में ले जाने पर कोई दोष लगता है या नहीं, इसका स्पष्ट अभिप्राय देने की . कृपा करें।
विशेषतः आपश्री को नम्रतापूर्वक निवेदन करता हूं कि, श्री ढुंढक हितशिक्षा अपर नाम गप्पदोपिका समीर सं. १९४८ के वर्ष में छपी हुई है, उसमें परम कृपालु श्री आत्मारामजी महाराजश्री ने जो उत्तर दिये हैं उसमें पृष्ठ ८६ पर 8 वें प्रश्न का उत्तर दिया है। उस सम्बन्ध में आपश्री का अभिप्राय जानने हेतु आपकी आज्ञा चाहता हूं।
आपश्री की सेवा में यह भी निवेदन है कि, आपश्री ने प्रत्युत्तर की अन्तिम दो पंक्तियों में लिखा है कि 'कालान्तर में
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[ स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य