________________
सुख-सुविधा प्राप्ति एवं अधिकाधिक भोग भोगने के लिये अपनी जन्मभूमि को छोड़कर शहरों की ओर दौड़ रहे हैं। फलस्वरूप एक ही शहर में लाखों, करोड़ों लोगों की भीड़ इकट्ठी होती जा रही है। उन लोगों के यांत्रिक लाखों वाहनों तथा उद्योगों में लगे यंत्रों से निकली विषैली गैसों से, उनके मल-मूत्र से, उनके द्वारा फैंके हुए कूड़े कचरे से, उनके श्वास से निकली कार्बनडाई ऑक्साइड से भयंकर प्रदूषण फैलता जा रहा है। भारत में दिल्ली, कलकत्ता, कानपुर आदि शहर इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। जहाँ श्वास लेने के लिये शुद्ध वायु मिलना कठिन हो गया है जिससे दमा, क्षय, हृदय, कैंसर जैसी भयंकर बीमारियाँ बड़ी तीव्र गति से फैलती जा रही हैं। यदि दिशा परिमाण व्रत का पालन किया जाय अर्थात् अपने गांव में रहकर स्वास्थ्य प्रदायक, सादा, सहज स्वाभाविक, प्राकृतिक जीवन जिया जाय तो बड़े-बड़े नगरों में उत्पन्न होने वाले समस्त प्रदूषणों एवं दूषित पर्यावरण संबंधी समस्या से सहज में ही बचा जा सकता है। 7. उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत
इस व्रत में फल-फूल, वस्त्र, विलेपन, खान-पान आदि समस्त उपभोगपरिभोग सामग्री की मर्यादा करने का विधान है। क्योंकि भोग-परिभोग ही आत्मिक दोषों, मानसिक द्वन्द्वों रूप प्रदूषणों के कारण हैं। अतः जैन धर्म में साधुओं के लिये तो इन्हें पूर्ण त्याज्य ही कहा है। गृहस्थ के लिये भी भोगों की वृद्धि को हेय माना है और इन्हें सीमित मर्यादित रखने का विधान है।
जैन धर्म का मानना है कि उपभोगवादी संस्कृति ही समस्त दोषों व प्रदूषणों की जननी है। अतः जब तक संस्कृति का आधार उपभोग रहेगा तब तक प्रदूषण भी बना रहेगा। कारण कि किसी वस्तु का दुरुपयोग करने से ही प्रदूषण पैदा होता है। वस्तु के सदुपयोग से वस्तु का जितना उपयोग होता है उससे अधिक उसका उत्पादन होता है। उसका अनावश्यक व्यय (अपव्यय) नहीं होता है। भोगवादी संस्कृति पशुता की द्योतक है, पशु जीवन प्रकृति के आधीन है। पशु-पक्षी भूख लगने पर ही खाते हैं, भूख नहीं होने पर नहीं खाते हैं। इस प्रकार प्रकृति का संतुलन बना रहता है। परन्तु मनुष्य भूखा होने पर भी चाहे तो नहीं खाये और भूख न होने पर भी स्वाद के वश भोजन कर लेता है। अर्थात् मनुष्य का जीवन प्रकृति के आधीन नहीं है। वह प्रकृति से अपने को ऊपर उठाने में स्वतन्त्र है। यही मानव की विशेषता भी है। मानव इस स्वतन्त्रता का सदुपयोग और दुरुपयोग दोनों कर सकता है। सदुपयोग है- प्रकृति का यथासंभव कम या उतना ही उपयोग करना जितना जीवन के लिये अत्यावश्यक है। स्वाध्याय शिक्षा -
53
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org