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के समान जो सहसा चित्त में व्याप्त हो जाए, वह सभी रसों और रचनाओं में रहने वाला प्रसाद गुण है।
शुष्के धनाग्निवत् स्वच्छजलवत्सहसैव यः ।
व्याप्नोत्यन्यत् प्रसादोऽसौ सर्वत्र विहितस्थितिः।।
इसमें ऐसे शब्द प्रयुक्त होते हैं, जिनके श्रवण मात्र से ही अर्थ की प्रतीति होने लगती है। सरलता, सर्वजनसुलभता तथा सहजग्राह्यता आदि प्रसाद गुण का वैशिष्ट्य है।
आगम-साहित्य में प्रसाद गुण का ही साम्राज्य विद्यमान है। आचारांग सूत्र में आत्मा के स्वरूप वर्णन में प्रसाद का विलास अवलोकनीय है
सब्वे सरा णियटॅति। तक्का जत्थ ण विज्जइ। मई तत्थ ण गाहिया।
उवमा ण विज्जए।
अपयस्स पयं णत्थि। से ण सद्दे, ण रूवे, ण गंधे, ण रसे, ण फासे.....।।
अर्थात् सभी स्वर वहाँ से लौट जाते हैं (आत्मा शब्दग्राह्य नहीं है) तर्क भी उसे नहीं पकड़ सकते (तर्कग्राह्य नहीं है) मति भी नहीं जा सकती है, उसकी कोई उपमा नहीं है। उसका बोधक कोई पद नहीं है। वह न शब्द है, न रूप है, न गंध है, न रस है, न स्पर्श है। अर्थात् वह इन्द्रियग्राह्य नहीं है।
उपासकदशाध्ययन में भगवान महावीर और सुधर्मा स्वामी के वर्णन में प्रसाद गुण की रमणीयता दृग्गोचर हो रही है। प्रथम अध्ययन में आर्य सुधर्मा स्वामी का वर्णन है, उसके बाद भगवान महावीर का । आर्य सुधर्मास्वामी के वर्णनविषयक प्रसंग प्रसाद गुण की प्रसन्नता से परिव्याप्त हैं
समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्ज सुहम्मे नाम थेरे जातिसंपण्णे, कुलसंपण्णे, बलसंपण्णे, रूवसंपण्णे, विणयसंपण्णे, नाणसंपण्णे, दंसणसंपण्णे, चरित्तसंपण्णे, लज्जासंपण्णे, लाघवसंपण्णे, ओयंसी, तेयंसी, वच्चंसी, जसंसी, जियकोहे, जियमाणे, जियमाए, जियलोहे, जियणिद्दे, जिइदिए जियपरीसहे, जीवियासमरण- भयविप्पमुक्के, तवप्पहाणे, गुणप्पहाणे.....उवागच्छइ।।"
इस प्रसंग में आर्य सुधर्मा स्वामी के चारित्रिक गुणों पर प्रकाश डाला गया
है।
भगवान के उत्कृष्ट चारित्र का समुत्थापक संदर्भ अवलोकनीय हैसमणेणं भगवया महावीरेणं जाव आइगरेणं तित्थगरेणं, सयंसंबुद्धेणं,
- स्वाध्याय शिक्षा
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