Book Title: Swadhyaya Shiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Sahitya Kala Manch

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Page 149
________________ साधक बाह्य संलेखना में आभ्यन्तर कषाय को परिपुष्ट करने वाले कारणों को शनैः शनैः कृश करता है। इस प्रकार संलेखना में कषाय क्षीण होने के साथ तन क्षीण होने पर भी अन्तर्मन में अपूर्व आनन्द का संचार होता है। निष्कर्ष यह है कि साधक शरीर और कषाय को इतना अधिक कृश कर लेता है कि उससे उसके अन्तर्मन में किसी भी प्रकार की कामना नहीं होती है। उसके अनशन में पूर्ण रूप से स्थैर्य आ जाता है। अनशन से शरीर क्षीण हो सकता है, पर आयुकर्म क्षीण न हो, और वह सबल हो तो अनशन दीर्घकाल तक चलता है। जैसे दीपक में तेल और बाती का एक साथ ही क्षय होने से दीपक बुझता है। वैसे ही आयुकर्म और शरीर एक साथ क्षय होने से अनशन पूर्ण होता है। वास्तव में संलेखना व्रतराज है, हमारे जीवन रूपी सुरम्य मन्दिर का चमकता हुआ स्वर्ण कलश है। . 93. दर्शन 'दसंण' प्राकृत भाषा का शब्द है। प्रस्तुत शब्द जैन आगम के विविध संदर्भो में प्रयुक्त हुआ है। 'दसण' का संस्कृत रूपान्तर 'दर्शन' निष्पन्न होता है। 'दृश अवलोकने' भ्वादिगणी परस्मैपदी धातु से ल्युट् प्रत्यय होने पर 'दर्शन' शब्द बनता है। यह दृश् धातु से उत्पन्न 'दर्शन' शब्द चक्षु से समुद्भूत होने वाले ज्ञान का बोध कराता है। दर्शन शब्द का व्युत्पत्तिजन्य अर्थ तथा सामान्य रूप से प्रचलित अर्थ भी 'चक्षु' से उत्पन्न होने वाला ज्ञान होता है। आंखों से देखने की इस प्रामाणिकता को स्वीकार करते हुए 'साक्षी' शब्द का अर्थ साक्षात् द्रष्टा माना जाता है। 'दर्शन' शब्द के अर्थ के विषय में विचार कर लेना अपेक्षित है। दर्शन शब्द के मूलतः त्रिविध अर्थ या आशय हैं। प्रथम अर्थ यथार्थ दृष्टिकोण है, द्वितीय अर्थ श्रद्धा है तथा तृतीय अर्थ अनुभूति है। इसमें अनुभूतिपरक अर्थ का संबंध तो ज्ञानमीमांसा से है और इस संदर्भ में वह ज्ञान का पूर्ववर्ती है। यदि हम 'दर्शन' का दृष्टिकोण परक अर्थ लेते हैं तो साधना मार्ग की दृष्टि से उसे प्रथम स्थान देना चाहिए। क्योंकि यदि मानव का दृष्टिकोण ही मिथ्या है, अयथार्थ है तो न उसका ज्ञान सम्यक् होगा और न चारित्र ही सम्यक् हो सकता है। अविचल श्रद्धा एवं अटूट आस्था तो ज्ञान के अनन्तर ही उत्पन्न हो सकती है एतदर्थ ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है, जिसमें 'दर्शन' का अर्थ 'श्रद्धा' परक किया गया है और उसे ज्ञान के बाद स्थान दिया गया है। ज्ञान के द्वारा पदार्थ के स्वरूप को जाने और दर्शन के द्वारा उस पर श्रद्धा करे। मानव के स्वानुभव अर्थात् ज्ञान के पश्चात् जो श्रद्धा उत्पन्न होती है, उसमें जो स्थायित्व होता है वह ज्ञानाभाव में प्राप्त हुई श्रद्धा से नहीं हो सकता है। ज्ञानाभाव में जो श्रद्धा होती 136 स्वाध्याय शिक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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