Book Title: Swadhyaya Shiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Sahitya Kala Manch

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Page 161
________________ चैतन्य ही होता है। कर्मबद्ध आत्मा की मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति के कारण पुद्गल परमाणु आकृष्ट होकर परस्पर एक दूसरे के साथ मिल जाते हैं, नीर-क्षीरवत् एक हो जाते हैं। चेतन और जड़ का पृथक्करण मुक्तावस्था में ही होता है। संसारी आत्मा कर्मयुक्त ही होती है। आत्मा से संबद्ध पुद्गल द्रव्य कर्म है और द्रव्यकर्म युक्त आत्मा की प्रवृत्ति भावकर्म है। कर्म का मुख्य कार्य है-आत्मा को संसार में आबद्ध रखना। जब तक कर्मबन्ध की परम्परा का प्रवाह प्रवहमान है तब तक आत्मा कर्मों से मुक्त नहीं हो सकता है। यह कर्म का सामान्य कार्य है। विशेषरूपेण देखा जाय तो भिन्न-भिन्न कर्मों के भिन्न-भिन्न कार्य हैं। जितने कर्म हैं, उतने कार्य हैं। वास्तव में शुभ-अशुभ कर्मों के आगमन को 'आसव' कहा जाता है। अर्थात् जिस प्रवृत्ति अथवा क्रिया से जीव में कर्मों का नाव-आगमन होता है, वह आम्नव है। जीव सीधा कमों को नहीं बुलाता है। किन्तु परोक्ष रूप से वह मन, वचन एवं काया द्वारा ऐसी प्रवृत्ति कर बैठता है, जिससे कर्म आ जाते हैं। कर्म प्रायोग्य पुद्गल परमाणु समग्र आकाश में तथा जीव के परिपार्श्व में विकीर्ण हैं, फैले हुए हैं। वे घूमते रहते हैं और प्रवेश भी उसी जीव में, वहीं करते हैं, जहां उनके साथी पहले से विद्यमान हों अथवा राग-द्वेष की स्निग्धता हो। कर्म पुद्गलों को खींच कर आत्मा में ले आने अथवा प्रवेश कराने के कारण ही उन्हें आस्रव कहते हैं। आत्मा अपनी अज्ञान दशा में आस्रव के द्वार को सदा उद्घाटित रखता है, खुला रखता है। कर्म बन्धते रहते हैं और इस प्रकार कर्मचक्र चिरंजीवी रहता है। संसारी प्राणी जब तक इन कर्मों के कौतुक में सक्रिय रहता है तब तक बहिरात्मा कहलाता है। बहिरात्मा पर-पदार्थों को अपना मानती है। जीव जब अपने कर्म द्वारा चक्र का संचालन करता है तब वह . कर्मचक्र कहलाता है। कर्मचक्र का अपर नाम 'संसार चक्र' है। वास्तव में किसी क्रिया का परिणाम कर्म कहलाता है। कर्म शुभ और अशुभ के रूप में दो प्रकार का है। शुभ कर्म जीवन में सुखद परिणाम जुटाते हैं और अशुभ कर्म दुःखद परिणाम जुटाते हैं। ' कर्म से ही संसार है और यही सुख और दुःख का दाता है। मोह से अनुप्राणित कर्म और उसका फल जीव को मिथ्यात्व की प्रेरणा देता है। कर्म से निष्कर्म होना ही आत्मा की मुक्तावस्था है। इस प्राकृत कर्म विधान में कोई शक्ति कदापि परिवर्तन नहीं कर सकती। यदि कोई परिवर्तन कर सकता है तो कर्म का कर्ता ही स्वयं कर्मों में परिवर्तन कर पाता है। वास्तव में जीव ही कर्म का कर्ता है, धर्ता है, हर्ता है और भोक्ता है। यह कर्म शब्द कर्ता, कर्म और भाव इन तीनों में भी निष्पन्न होता है। 148 स्वाध्याय शिक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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