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स्पष्ट है कि शरीर पाँच हैं" - औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मणा। इन पाँच शरीरों में कार्मण शरीर कर्मरूप है, जबकि शेष चार शरीर नो कर्म रूप हैं। यद्यपि कर्म वास्तव में चेतन प्रवृत्ति का नाम है तथापि उसका कार्य तथा कारण होने से कार्मण शरीर को भी उपचार से कर्म कहा जाता है। विशेषता इतनी है कि चेतन की रागादि प्रवृत्ति के समान यह भावात्मक न होकर कर्मवर्गणा के परमाणुओं से निर्मित होने के कारण द्रव्यात्मक है, द्रव्यकर्म है। जिस प्रकार कारण में कार्य का उपचार करके कार्मण शरीर को द्रव्य कर्म कहा गया है उसी प्रकार औदारिक, वैक्रिय, प्रभृति शरीरों को भी द्रव्यकर्म कहा जा सकता है । परन्तु कार्मण शरीर रूप द्रव्य कर्म जिस प्रकार आत्मा की शक्ति का घात करता है, उस प्रकार ये द्रव्य कर्म आत्मा की शक्ति का घात नहीं करते हैं। यही कारण है कि इनको कर्म नहीं कहना चाहिये, अपितु 'नोकर्म' कहा जा सकता है। यह स्पष्ट है कि आत्मा अपने मन, वचन और काय की प्रवृत्तियों से कर्मवर्गणा के पुद्गलों को आकर्षित करता है। मन, वचन और काय की प्रवृत्ति तभी होती है, जब जीव के साथ संबंध होता है। जीव के साथ कर्म तभी संबद्ध होता है जब मन, वचन और काय की प्रवृत्ति होती है । इस प्रकार प्रवृत्ति से कर्म एवं कर्म से प्रवृत्ति की परम्परा अनादि काल से चली आ रही है। कर्म और प्रवृत्ति के कार्य-कारण भाव को लक्ष्य में रखते हुए पुद्गल परमाणुओं के पिंड रूप कर्म को द्रव्यकर्म कहा जाता है तथा राग-द्वेष आदि प्रवृत्तियों को भाव कर्म कहा जा सकता है । द्रव्य कर्म के होने में भाव कर्म और भाव कर्म के होने में द्रव्य कर्म कारणभूत है। जैसे वृक्ष से बीज और बीज से वृक्ष की परम्परा अनादि काल से चली आ रही है इसी प्रकार द्रव्य कर्म से भाव कर्म और भाव कर्म से द्रव्य कर्म की परम्परा वास्तव में अनादि काल से चली आ रही है। यह भी पूर्णतः प्रगट है कि जड़ और चेतन इन दोनों के संमिश्रण से कर्म का निर्माण होता है । द्रव्य कर्म हो अथवा भाव कर्म हो, उसमें जड़ एवं चेतन नामक दोनों प्रकार के तत्त्व विद्यमान रहते हैं। जड़ और चेतन के मिले बिना कर्म की रचना नहीं हो सकती है । द्रव्य कर्म और भाव कर्म में पुद्गल और आत्मा की प्रधानता मुख्य है । किन्तु एक दूसरे के सद्भाव और असद्भाव का कारण मुख्य नहीं है । द्रव्य कर्म में पौद्गलिक तत्त्व की मुख्यता होती है और आत्मिक तत्त्व गौण होता है। भाव कर्म में आत्मिक तत्त्व की प्रधानता होती है और पौद्गलिक तत्त्व गौण होता है। कर्म के कर्तृत्व और भोक्तृत्व का संबंध संसारी आत्मा से है, मुक्त आत्मा से नहीं है । संसारी आत्मा कर्मों से आबद्ध है। उसमें चैतन्य और जड़त्व का मिश्रण है। मुक्त आत्मा कर्मों से रहित होता है। उसमें विशुद्ध
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