Book Title: Swadhyaya Shiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Sahitya Kala Manch

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Page 164
________________ कर्मों की जो निष्पत्ति होती है, वह क्रिया के द्वारा ही होती है, क्रिया इस अर्थ में कर्म की जननी है। क्रिया का वाच्य अर्थ करना है। शुभ-अशुभ सर्व प्रकार की चेष्टाओं को क्रिया कहा जाता है अथवा कर्मबन्ध के हेतु को क्रिया कहते हैं। द्रव्य षट्विध हैं। 103 उनमें जीव एक द्रव्य है और द्रव्य मात्र में अर्थ क्रियाकारित्व धर्म रहता है। जब जीव स्वरूपाचरण में क्रिया करता है तब वह क्रिया कर्मबन्ध का कारण नहीं बनती है। अवशेष क्रियाएँ जीव के लिए कर्मबन्ध की कारण हैं। जो योग और कषाय के कारण से क्रिया होती है वह क्रिया साम्परायिकी क्रिया कहलाती है। जीव को सम्परायबद्ध अर्थात् कषाय बद्ध करने वाली क्रिया को साम्परायिकी क्रिया कहा जाता है। यह क्रिया सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान अथवा सूक्ष्म सम्पराय चारित्र पर्यन्त रहती है। निष्कर्ष यह है कि कषाय की उपस्थिति में जो क्रिया होती है, उस क्रिया का नाम साम्परायिकी क्रिया है और कषाय रहित दशा में जो क्रिया होती है, वह ऐर्यापथिकी क्रिया कहलाती है। इसका अभिप्राय यह है कि क्रिया कषाय सापेक्ष नहीं है, कषाय निरपेक्ष है। उसका अर्थात् क्रिया का कषाय के सद्भाव और अभाव से कोई संबंध नहीं है। वास्तव में उसका संबंध योग के होने न होने से है। आत्मा जब क्रियाओं से विमुक्त हो जाता है तब वह मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। निर्वाण पद को सम्प्राप्त कर लेता है। २४. ज्ञान 104 'नाण' और 'णाण' ये दोनों शब्द प्राकृत भाषा के शब्द हैं। जैन आगम का जब भी पर्यवलोकन किया जाता है, तब उक्त शब्द प्रचुर रूपेण दृष्टिगत होते हैं।' 'नाण और णाण' इन दोनों का संस्कृत रूपान्तर “ज्ञान” बनता है । 'ज्ञा' धातु से “ज्ञान” शब्द निष्पन्न होता है। जिसके माध्यम से जाना जाता है अथवा जिससे जाना जाता है, वह ज्ञान है। ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से युक्त होकर जो अपने विषय स्वरूप को जानता है वह भी ज्ञान है। इसका आशय यह भी है कि जीव का अपने आपको अथवा अपने स्वरूप को जानना भी ज्ञान है। स्वरूपगत भेद के आधार पर ज्ञान के पाँच प्रकार प्रतिपादित हुए हैं। ज्ञान और आत्मा इन दो में कोई भेद नहीं है, अपितु इनमें कथंचित् तादात्म्य संबंध है। ज्ञान आत्मा का निज गुण है। इसलिये ज्ञान आत्मा को भिन्न नहीं किया जा सकता। आत्मा ही ज्ञान है और ज्ञान ही आत्मा है । यह ज्ञातव्य तथ्य है कि ज्ञानावरणीय कर्म आत्मा के ज्ञान गुण को सर्वथा रूपेण आवृत्त नहीं करता है, परन्तु केवल ज्ञान का सर्वथा निरोध करता है। निगोदस्थ जीवों में भी ज्ञानावरणीय कर्म का उत्कट उदय रहता है, किन्तु 105 106 स्वाध्याय शिक्षा 151 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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