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उन जीवों में भी ज्ञान का अनन्तवाँ भाग नित्यशः अनावृत्त रहता है। ज्ञान गुण कदापि पूर्णतः तिरोहित नहीं होता है। यदि ऐसा हो जाय तो जीव अजीव हो जाय। जब भी हम वस्तु तत्त्व को जानते हैं, तब ज्ञान उत्पन्न नहीं होता है। किन्तु उस समय उसका प्रयोग होता है। जानने की क्षमता हमारे में रहती है। जितनी जिसमें ज्ञान की क्षमता होगी वह उतना ही जानने में सफल होगा। ज्ञान और ज्ञेय का जो संबंध है, वह विषय-विषयी भाव संबंध है। प्रमातृत्व ज्ञान का स्वभाव है एतदर्थ वह विषयी है। अर्थ ज्ञेय स्वभाव है, इसलिये वह विषय है। ये दोनों स्वतन्त्र हैं। द्रव्य, गुण और पर्याय ये ज्ञेय हैं। ज्ञेय से ज्ञान उत्पन्न नहीं होता है और ज्ञान से ज्ञेय उत्पन्न नहीं होता है। हमारा ज्ञान जाने अथवा नहीं भी जाने तथापि पदार्थ अपने स्वरूप में अवस्थित है। आत्मा का स्वरूप जानने के लिये ज्ञान का स्वरूप समझना नितान्त अनिवार्य है। इसीलिये ज्ञान का इतना अधिक मूल्य और महत्त्व है। उपसंहार
सारपूर्ण भाषा में यही कहा जा सकता है कि जैन आगम-साहित्य वस्तुतः एक ऐसा आदित्य है, जो सर्वदिशा से और सर्वविदिशा में अहर्निश उदीयमान है, प्रदीप्तिमान है। यह वह साहित्य है जो सहस्रशः पारिभाषिक शब्दों की शुभ्र आभा से प्रभास्वर है। जैनागम वाङ्मय में व्यवहृत पारिभाषिक शब्दावलि और उसके अर्थ अभिप्राय में शब्द शक्ति की महती भूमिका रही है। शब्द के अर्थ एवं रूप में काल तथा क्षेत्र का प्रभाव भी अंकित रहा है। इतना ही नहीं कालान्तर में उसके स्वरूप एवं अर्थ में परिवर्तन भी हुआ है। परिवर्तन की इस अजम्न धारा में आगम-साहित्य में प्रयुक्त शब्दावली का अपना अर्थ एवं आशय विशेष रूप ग्रहण करना चाहिए। किं बहुना आगमीय पारिभाषिक शब्द का अर्थ भिन्न-भिन्न विषयों में भी पृथक्-पृथक् हो जाता है। जो आगमिक शब्द किसी विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, अर्थ की दृष्टि से उसी शब्द को पारिभाषिक शब्द के रूप में रूपायित किया है। जिससे पारिभाषिक शब्दों का अर्थ अभिप्राय नियत निश्चित हो जाता है। तदनन्तर उस शब्द के अर्थ
और आशय को संदर्भ से ही जाना जाता है और वही शब्द अपने व्यक्तित्व एवं व्यापकत्व की दिव्य प्रभा अनुपम रूप से प्रदर्शित कर देता है।
संदर्भ 1. गुरुपारम्पर्येणागच्छतीति आगमः, आ-समन्तात् ज्ञायन्ते-गम्यन्ते जीवादयः पदार्था
अनेनेति वा।-अनुयोगद्वार सूत्र वृत्ति 219/5 2. भाष्यानुसारिणी टीका, पृष्ठ 87, सिद्धसेनगणिकृत। 3. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा-559
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