Book Title: Swadhyaya Shiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Sahitya Kala Manch

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Page 162
________________ २१. प्रत्यक्ष 'पच्चक्ख' प्राकृत भाषा का एक भावपूर्ण शब्द है। जैन आगम-साहित्य में उक्त शब्द का प्रयोग विविध स्थलों पर हुआ है। 'पच्चक्ख' शब्द का संस्कृत रूपान्तर 'प्रत्यक्ष' निष्पन्न होता है। 'प्रति' उपसर्ग पुरस्सर 'अक्ष' से "प्रत्यक्ष" शब्द की निष्पत्ति हुई है। 'अक्ष' शब्द आत्मा और इन्द्रिय का वाचक है। ज्ञान का सामान्य अर्थ 'जानना' है। यह जानना कभी इन्द्रिय और मन के माध्यम से होता है और कभी इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना भी सीधा आत्मा से होता है वह प्रत्यक्ष-प्रमाण कहलाता है, जैसे कि अवधिज्ञान, मनःपर्याय ज्ञान और केवलज्ञान। प्रत्यक्ष प्रमाण की जो यह व्याख्या है, वह निश्चय नय की अपेक्षा से है। इन्द्रिय और मन की सहायता से जो ज्ञान होता है, वह भी प्रत्यक्ष प्रमाण है। यह व्याख्या व्यवहार नय की दृष्टि से की गई है। निष्कर्ष यह है कि प्रत्यक्ष प्रमाण की प्रधानतः दो शाखाएँ हैं-आत्म-प्रत्यक्ष तथा इन्द्रिय-अनिन्द्रिय प्रत्यक्षा प्रथम शाखा परमार्थश्रयी है, एतदर्थ यह वास्तविक प्रत्यक्ष है और द्वितीय शाखा व्यवहारश्रयी है, एतदर्थ यह औपचारिक प्रत्यक्ष है। आत्म प्रत्यक्ष के दो मुख्य भेद हैं- प्रथम सकल प्रत्यक्ष तथा द्वितीय विकल प्रत्यक्षा केवलज्ञान अर्थात् पूर्ण ज्ञान सकल प्रत्यक्ष है। अवधिज्ञान एवं मनःपर्याय ज्ञान विकल प्रत्यक्ष है। इन्द्रिय और मन की सहायता से जो ज्ञान प्राप्त होता है वह इन्द्रिय के लिये प्रत्यक्ष है तथा आत्मा के लिए परोक्ष होता है। इसी दृष्टि से उसे इन्द्रिय प्रत्यक्ष अथवा संव्यवहार प्रत्यक्ष कहते हैं। जहाँ प्रमाण का वर्गीकरण हुआ है वहाँ प्रमाण के दो भेद प्रतिपादित हुए हैं -एक प्रत्यक्ष प्रमाण और द्वितीय परोक्ष प्रमाण। जहाँ पंचविध ज्ञान का प्रतिपादन हुआ है वहाँ भी ज्ञान के आधार पर प्रत्यक्ष और परोक्ष के रूप में ज्ञान का विभाजनं दो प्रकार से हुआ है।" २२ लोक . 'लोय' और 'लोग' ये दोनों प्राकृत भाषा के शब्द हैं। जैन आगम वाङ्मय में इन दोनों शब्दों का प्रचुर प्रयोग हुआ है। यह भी पूर्ण स्पष्ट है कि उक्त लोय एवं लोग का संस्कृत रूपान्तर 'लोक' निष्पन्न होता है। 'लोकृ' अवलोकने अर्थात् 'लोक्' धातु से 'लोक' शब्द की निर्मिति हुई है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और आकाशास्तिकाय द्रव्यों का समूह ही लोक कहलाता है। जहाँ हम रहते हैं, वह लोक है। लोक अलोक के बिना नहीं हो सकता है। इसलिये अलोक भी है। अलोक केवल आकाश है। लोक और अलोक का विभाजन नया नहीं है, काल्पनिक नहीं है, अपितु शाश्वत है और उसके विभाजक तत्त्व भी शाश्वत है। छहों स्वाध्याय शिक्षा 149 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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