Book Title: Swadhyaya Shiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Sahitya Kala Manch

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Page 158
________________ वास्तविकता यह है कि भावना, अनुप्रेक्षा, धारणा और संस्कार इन सर्व शब्दों का अभिप्रेत अभिप्राय एक जैसा है। भावना एक-एक अर्थ विषय पर एकाग्रता पुरस्सर चिन्तन करना भी है। किसी साधक ने कोई ध्येय, अध्यात्मलक्ष्यी विषय अथवा कोई आत्म-विकास भाव मन में निश्चित किया है। उसका तदनुसार पुनः-पुनः चिन्तन, मनन एवं तन्मयता पुरस्सर निदिध्यासन करता है, यही भावना है। भावना का निर्वचन भी यही है- भाव्य व्यक्ति अथवा पदार्थ के प्रति एकाग्र अथवा तन्मय हो जाना भावना है। यही धारणा का अर्थ है। जिस वस्तु की धारणा करनी है अथवा की गई है, उसके प्रति तल्लीन एवं दत्तचित्त हो जाना धारणा है। जप और ध्यान का भी यही अर्थ है-जप्य अथवा ध्येय वस्तु के प्रति एकतान, एकनिष्ठ हो जाना ध्यान है। साधक जिस विषय अथवा व्यक्ति के प्रति भावना करता है, जिसका पुनः पुनः अभ्यास करता है उसी रूप में उसका संस्कार बन जाता है। इसलिये इसे संस्कार भी कहा जाता है। निष्कर्ष यह है कि अनुप्रेक्षा कर्मक्षय अथवा कर्मनिरोध की दृष्टि एवं नैतिक, धार्मिक तथा आध्यात्मिक प्रयोजन से की जाती है, जिससे अशुभ विचार एवं कुसंस्कार विदा हो जाते हैं और अज्ञात मन में शुभ विचार एवं सुसंस्कार स्थापित हो जाते हैं। इतना ही नहीं, साधक संवर और निर्जरा का अचिन्त्य लाभ 'अनुप्रेक्षा' से प्राप्त कर लेता है। यथार्थता की दिव्य ज्योति, जो मूर्छा एवं विमूढ़ता की भस्म से आच्छादित थी, वह प्रगट हो जाती है। यह एक विचारणीय प्रश्न है कि अनुप्रेक्षा अर्थात् भावना कब और कैसे भवतारिणी नौका बन सकती है। इस भावना रूप नौका का उपयोग कैसे हो। इसमें क्या- क्या जागरूकताएँ रखनी अपेक्षित हैं, अनिवार्य हैं। इसका विवेक साधक को होना चाहिए। सर्वप्रथम साधक को चाहिये कि भावना का उद्देश्य विशुद्ध हो, आत्मावलोकन हो, क्योंकि भावनाएँ अर्थात् अनुप्रेक्षाएँ संवेग, वैराग्य, निर्वेद, भाव शुद्धि के लिये आत्मा और पर पदार्थों के संयोग पर गहराई से मनन-मंथन करने के लिये हैं। इसलिये कर्म-मुक्ति की दृष्टि से ही इनका बार-बार चिन्तन किया जाय। धैर्य, एकाग्रता, तन्मयता तथा तीव्रतम अध्यात्मलक्ष्यी भाव धारा प्रवाहित होने पर ही भावितात्मा बन कर साधक अभीष्ट सिद्धि प्राप्त कर सकता है अर्थात् भावना से भावित होने पर ही मानव जो भी होना चाहता है, हो जाता है। जो भी घटित करना चाहता है, वह घटित हो जाता है। मन को, स्वभाव को जिस रूप में ढालना चाहता है, ढाल सकता है। भावना और अनुप्रेक्षा इन दोनों का यथायोग्य स्वरूप तथा उनसे संवर, निर्जरा एवं मोक्ष रूप लाभ कैसे प्राप्त हो सकता है। इसे भली-भाँति निश्चय एवं व्यवहार इन दोनों दृष्टियों से समझना आवश्यक है। स्वाध्याय शिक्षा - - - 145 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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