Book Title: Swadhyaya Shiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Sahitya Kala Manch

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Page 156
________________ अर्थात् संयम को वहन करते हुए मुनिजन संसार रूपी अरण्य को पार कर जाता है। 'जोगवं' अर्थात् योगवान प्रयोग प्राप्त होता है।" यह संयम के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। 'जोगवाहियाए' शब्द भी समाधिभाव में सुस्थिर अनासक्त पुरुष के लिये प्रयुक्त हुआ है। इस प्रकार 'योग' शब्द अनेक स्थानों पर 'संयम' एवं 'समाधि' अर्थ में प्राप्त होता है। मन, वचन और काय का व्यापार अर्थ में भी इस शब्द का प्रयोग हुआ है। इस प्रकार योग शब्द जहाँ संयम और समाधि के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है वहाँ मन, वचन एवं काय की प्रवृत्ति के अर्थ में भी व्यवहृत हुआ है। जैन योग के दो प्रमुख और महत्त्वपूर्ण सूत्र हैं। प्रथम संवर योग है एवं द्वितीय तपोयोग है। तप को परिपुष्ट करने तथा उसमें गहराई लाने के लिये द्वादश भावना का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। अतएव 'भावनायोग' भी जैन योग-साधना पद्धति का अभिन्न अंग है। योग शब्द का वाच्य अर्थ समाधि एवं ध्यान के रूप में हुआ है। इसके अतिरिक्त आगमेतर साहित्य में भी समाधि और ध्यान के अर्थ में योग का स्पष्टतः प्रयोग हुआ है। यथार्थता यह है कि जो आत्मा को केवलज्ञान प्रभृति परम सात्त्विक एवं ज्ञान चेतना के साथ जोड़ता है वह योग है। योग वास्तव में आत्मा को मोक्ष से जोड़ता है अर्थात् मोक्ष तक पहुँचाता है। वस्तुस्थिति भी यह है कि जहाँ योग 'समाधि' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है वहाँ वह साध्य रूप से भी निर्दिष्ट है और जहाँ योजन, संयोजन अथवा संयोग के अर्थ में योग का प्रयोग किया गया है, वहाँ वह साधन के रूप में निर्दिष्ट है। यह तथ्य है कि बिना साधन के साध्य की प्राप्ति नहीं होती है। समाधि आत्मा की विक्षेपरहित समभाव की साधना है, समभाव परिणतिरूप समाहित अवस्था है। जिसमें चित्त की एक प्रकार की विशिष्ट एकाग्रता अपेक्षित है और यह चित्त की एकाग्रता ध्यान-साध्य है। मोक्षाभिलाषी आत्मा को अध्यात्म योगी बनने की सप्राण प्रेरणा प्रदान की गई है। इसका प्रमुख कारण यह है कि चारित्र विशुद्धि के लिये मुमुक्षु आत्मा को अध्यात्म-योग के अनुष्ठान की नितान्तरूपेण आवश्यकता होती है। निष्कर्ष की भाषा में यही कहा जा सकता है कि योग जैनागमों का एक महत्त्वपूर्ण पारिभाषिक शब्द रहा है। अध्यात्म-साधना के क्षेत्र में योग अन्यत्र कहीं का नवागत अतिथि नहीं है, अपितु चिर पुरातन है। तप, जप, संयम, समता, समाधि, भावना, ध्यान प्रभृति के साथ योग भी एक सहयोगी रूप में रहता आया है। १९. अनुप्रेक्षा 'अणुप्पेहा' प्राकृत भाषा का एक भावपूर्ण शब्द है। प्रस्तुत शब्द का प्रचुर प्रयोग जैन आगम वाङ्मय में बहुविध परिप्रेक्ष्य में हुआ है। 'अणुप्पेहा' का संस्कृत स्वाध्याय शिक्षा - 143 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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