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रूपान्तर 'अनुप्रेक्षा' बनता है। एक शब्द 'प्रेक्षा' है। उसका आशय देखना है, गहराई से देखना है, तटस्थता पुरस्सर देखना है, केवल देखना है। उसमें कोई चिन्तन मनन नहीं होता। एकमात्र प्रेक्षा होती है। द्वितीय शब्द अनुप्रेक्षा है। ‘अनु' और 'प्र' उपसर्ग पूर्वक 'ईक्ष्' धातु से अनुप्रेक्षा' शब्द बना है। प्रेक्षा के पूर्व में 'अनु' उपसर्ग प्रयुक्त होते ही 'प्रेक्षा' शब्द का आशय परिवर्तित हो गया। अभिप्राय भी स्पष्टतः परिवर्तित हो गया। उसमें चिन्तन-मनन का समावेश हो गया। इस प्रकार अनुप्रेक्षा शब्द का अभिप्राय पुनः पुनः देखना है। गहराई से देखना है। चिन्तन-मनन पूर्वक देखना है। मन, चित्त और चैतन्य को उस विषय में रमाना है। उन संस्कारों को दृढ़ीभूत करना है। अनुप्रेक्षा अर्थात् सत्य को देखना है, सत्य पर चिन्तन करना है। अपनी जो पूर्व धारणाएँ हैं, उन्हें निकालकर पूर्वकालीन संस्कारों को हटा कर जो सत्य है, यथार्थ है, वास्तविकता है, उसका चिन्तन करना ‘अनुप्रेक्षा' है। सत्य के प्रति एकनिष्ठ बुद्धि से देखना अनुप्रेक्षा है। अनुप्रेक्षा का सिद्धान्त सत्य-दर्शन का सिद्धान्त है। अपनी समग्र पूर्व धारणाओं एवं संस्कारों को नकार कर सत्य को ग्रहण करने का, उसे धारण करने का सिद्धान्त है। अनुप्रेक्षा भी योग-साधना का एक अभिन्न अंग है। इस अनुप्रेक्षा योग की साधना करने वाला साधक अपने पूर्व संस्कारों एवं धारणाओं तथा रागद्वेष समन्वित मान्यताओं एवं मूढ़ताओं से परे हटकर, सत्यं के प्रति सर्वात्मना-समर्पण भाव से समर्पित हो जाता है और सत्य को ही अपने मन में एवं अणु-अणु में रमाता है। इस सत्य को अपने मन-मस्तिष्क में रमाने के लिए वह द्वादश अनुप्रेक्षाओं का बार-बार चिन्तन करता है। वास्तव में अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन-मनन करके साधक इन संस्कारों से अपनी आत्मा को भावित करता है। अतएव इन्हें 'भावना' भी कहा जाता है। अनुप्रेक्षा और भावना ये दोनों शब्द एकार्थवाची हैं। भावना अर्थात् अनुप्रेक्षाओं में वाणी नहीं मुख्यतः मन ही गतिशील रहता है। अतएव मौनपूर्वक गंभीर चिन्तन-मनन को अनुप्रेक्षा अथवा भावना कहा गया है। अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार प्रभृति स्वरूपों का अनुप्रेक्षण अर्थात् अनुचिन्तन करना, स्मरण करना अथवा देखना 'अनुप्रेक्षा' है। द्वादश भावनाओं का नित्यशः चिन्तन एवं अभ्यास करने से मानव के हृदय में कषाय की अग्नि बुझ जाती है, पर-भाव के प्रति राग गल जाता है। अज्ञान रूपी घनीभूत अंधकार विलय होकर ज्ञान रूप दीप अर्थात् बोधि दीप का प्रकाश हो जाता है। वास्तव में बारह अनुप्रेक्षाओं का भावन अर्थात् चिन्तन करने से श्रमण जीवन में संवर-निर्जरा रूप धर्म का महान् उद्यम होता है। कर्मों का क्षय होता है। 144 --- -
स्वाध्याय शिक्षा
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