Book Title: Swadhyaya Shiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Sahitya Kala Manch

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Page 150
________________ है उसमें संशय होने की संभावना हो सकती है। ऐसी श्रद्धा यथार्थ श्रद्धा नहीं, अपितु अन्धश्रद्धा ही होती है। यद्यपि अध्यात्मसाधना के लिये और आचरण के लिये सम्यक् श्रद्धा अनिवार्य तत्त्व है और यह श्रद्धा ज्ञान प्रसूत होनी चाहिये। मेरे विनम्र मन्तव्य के अनुसार यथार्थ दृष्टि परक अर्थ में सम्यग्दर्शन को ज्ञान के पूर्व लेना चाहिए, जबकि श्रद्धा परक अर्थ में सम्यग्दर्शन को ज्ञान के अनन्तर स्थान देना चाहिए। यह सुस्पष्ट है कि चारित्र की अपेक्षा ज्ञान एवं दर्शन को प्राथमिकता दी गई है। चारित्र, ज्ञान और दर्शन इन तीनों का परस्पर संबंध है और अपेक्षाकृत अन्तर भी है। चारित्र साधना-मार्ग में गति है, जबकि ज्ञान-साधना पथ का बोध है और दर्शन यह विश्वास जाग्रत कर देता है कि वह मार्ग उसे अपने निश्चित लक्ष्य बिन्दु की ओर ले जाने वाला है। वास्तव में दृष्टिकोण अथवा श्रद्धा ही एक ऐसा मूलभूत प्राण रूप तत्त्व है जो जन-जन के ज्ञान एवं आचरण इन दोनों का यथार्थरूपेण दिशा निर्देश करता है। सम्यग्दृष्टि से ही तप, ज्ञान और सदाचरण सर्वथा रूपेण सफल होते हैं। सम्यग् और दर्शन इन दो शब्दों के संयोग से निर्मित सम्यग्दर्शन का आशय है अच्छी प्रकार से देखना। विकार विहीन दृष्टि से देखना। नयन की विकृति हमारे चक्षुइन्द्रिय के बोध को विकृत कर देती है। आध्यात्मिक जगत में राग और द्वेष हमारी दृष्टि को विकृत कर देते हैं। जिसके फलस्वरूप हम सत्य का यथार्थ रूप में दर्शन नहीं कर पाते हैं। यह एक ज्ञातव्य बिन्दु है कि सम्यग्दर्शन शब्द श्रद्धा, देव, गुरु एवं धर्म के प्रति श्रद्धा के अर्थ में भी रूढ़ है, प्रचलित है।" तत्त्वभूत पदार्थों पर श्रद्धा करना ‘सम्यग्दर्शन' है। इतना सा लक्षण मान कर किसी व्यक्ति की तत्त्वभूत पदार्थों पर श्रद्धा तब तक सम्यक् श्रद्धा नहीं मानी जा सकती, जब तक वह व्यक्ति तत्त्व क्या है? वे कितने हैं? उनका अर्थ अथवा भाव क्या है? उन पर श्रद्धान क्यों और कैसे किया जाए? उन तत्त्वों का स्वरूप क्या है? इन और इनसे संदर्भित तथ्यों को गहराई से न समझ ले। जो पदार्थ हेय, उपादेय और ज्ञेय जैसा जिस रूप में अवस्थित है उसका जिनेन्द्र भगवन्तों ने वैसा स्वरूप बता कर, इन नवविध अथवा सप्तविध पदार्थों की तत्त्वरूपता सुस्पष्ट कर दी है। एतदर्थ ये ही जिनोक्त पदार्थ तत्त्वभूत माने जाते हैं। हां, इनके नाम अन्य दर्शनों में चाहे और हों, परन्तु तत्त्वतः ये ही पदार्थ सम्यग्दृष्टि के लिए श्रद्धान योग्य हैं। परम श्रद्धेय रूप हैं, विश्वसनीय हैं। आध्यात्मिक यात्रा की प्राथमिक उड़ान के लिए 'सम्यक् श्रद्धा' की प्रथम पांख के रूप में 'तत्त्वार्थश्रद्धान' प्रतिपादित किया गया है। सम्यक् श्रद्धा की द्वितीय पांख देव, गुरु एवं धर्म पर श्रद्धान है। अध्यात्म यात्रा की अंतिम मंजिल पर पहुंचने के लिये इन दोनों पांखों की स्वाध्याय शिक्षा - 137 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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