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है, अनुत्तर है व सर्वोत्तम है। इसीलिए इसके लिए कहा गया है- 'वाणी तो घणेरी पर वीतराग तुल्य नहीं, इसके सिवाय और छोरा सी कहानी है। इस परम पावन जिनवाणी की पहचान, इसमें रही पाँच बड़ी विशेषताओं से होती है जो इस प्रकार
"प्रबोधाय विवेकाय, हिताय प्रशमाय च।
सम्यक् तत्त्वोपदेशाय सतां सूक्तिः प्रवर्तते।।"
अर्थात् जो १. मोह निद्रा से सुप्त प्राणियों को जगाकर तत्त्वों का बोध कराती है २. आत्म ज्ञान को प्रगट करने वाली है ३. प्राणी मात्र के लिए ऐकान्तिक
और आत्यन्तिक हितकर्ता है ४. कषायादि विकारों का शमन करने वाली है तथा ५. नय, निक्षेप, प्रमाण आदि से तत्त्वों के हेय, ज्ञेय व उपादेय का सम्यक् स्वरूप प्रकट करने वाली सूत्र रूप में है तथा संत ज्ञानी महापुरुषों के माध्यम से प्ररूपित हुई है। इस परम पुनीत जिनवाणी की विशेषताओं के संबंध में और भी कहा गया है
"रत्नत्रयी रक्षति येन, जीवा विरज्यतेऽत्यन्तशरीरसौख्यात्। रुणद्धि पापं कुरुते, विशुद्धिज्ञानं तदिष्टम् सकलार्थविद्भिः ।।"
___ अर्थात् जिससे जीव रत्नत्रय की रक्षा करता है, पाप कर्म को रोकता है तथा आत्म-विशुद्धि करता है, वही ज्ञान (जिनवचन) सर्वज्ञों को अभीष्ट है। सर्वज्ञ वीतराग भगवंतों की वाणी त्रिदोष रहित होती है, जो इस प्रकार है-१. अव्याप्ति २. अतिव्याप्ति ३. असंभव। २. जिनसूत्र (जिनवाणी) पक्षपात व रागद्वेष रहित होते हैं- जिन सूत्रों की एक बड़ी विशेषता यह भी है, कि वे स्व-पर मत, परंपरा, संप्रदाय आदि के रागद्वेष से प्ररूपित न होकर वस्तुस्वरूप की यथार्थ प्ररूपणा करते हैं। इसीलिए कहा गया है"पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु। युक्तिमद्वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः।।"
अर्थात् इनमें न तो वीर के प्रति पक्षपात है, न कपिलादि के प्रति द्वेष है। किन्तु जिनके वचन युक्तियुक्त हैं, तर्क शुद्ध हैं, उसी को स्वीकार किया गया है। ३. जिनसूत्र विज्ञान के अनुभव सिद्ध सत्य से विपरीत नहीं-सम्यग् व सार्थक जीवन के लिए विज्ञान और धर्म का यथोचित समन्वय परम आवश्यक है। इस हेतु जिनसूत्रों के नाम से प्रचलित ऐसे कथानक, जो विज्ञान के प्रत्यक्ष अनुभव सिद्ध तथ्यों से विपरीत हैं या मैल नहीं खाते, उन पर गंभीरता से विचार किए जाने की आवश्यकता है। इस संदर्भ में यहां दो उदाहरण प्रस्तुत हैं- १. भूगोल
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