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वर्गीकरण त्रिविध रूप से हुआ है - आत्मागम, अनन्तरागम एवं परम्परागमा आगम के अर्थ-रूप एवं सूत्र-रूप ये दो भेद हैं। तीर्थंकर महाप्रभु अर्थ -रूप आगम का उपदेश करते हैं। अतएव अर्थ-रूप आगम तीर्थंकरों का आत्मागम कहलाता है। क्योंकि वह अर्थागम उनका स्वयं का है। अन्य से उन्होंने नहीं लिया है। किन्तु वही अर्थागम गणधरों ने तीर्थंकरों से प्राप्त किया है। गणधर एवं तीर्थंकर के मध्य किसी तृतीय व्यक्ति का व्यवधान नहीं है। एतदर्थ गणधरों के लिये वह अर्थागम
अनन्तरागम कहलाता है। किन्तु उस अर्थागम के आधार पर स्वयं गणधर सूत्र रूप . रचना करते हैं। इसलिये सूत्रागम गणधरों के लिये “आत्मागम" कहलाता है। गणधरों के साक्षात् शिष्यों को गणधरों से सूत्रागम सीधा प्राप्त होता है। उनके मध्य में कोई भी व्यवधान रूप नहीं होता है। एतदर्थ उन शिष्यों के लिये सूत्रागम 'अनन्तरागम' है। किन्तु अर्थागम ‘परम्परागम' है, क्योंकि वह उन्होंने अपने धर्म गुरु गणधरों से प्राप्त किया है, जो गणधरों को भी आत्मागम नहीं था। उन्होंने तीर्थंकरों से प्राप्त किया था। गणधरों के प्रशिष्य और उनकी परम्परा में होने वाले अन्य शिष्यों एवं प्रशिष्यों के लिये सूत्र एवं अर्थ वास्तव में परम्परागम है। निष्कर्ष यह है कि जैन आगम साहित्य की प्रामाणिकता केवल गणधरकृत होने से नहीं है, अपितु उसके अर्थ प्ररूपक तीर्थकर की वीतरागता और सर्वार्थ साक्षात्कारित्व से है। 'आगम'. संस्कृत भाषा का शब्द है। जिसका सामान्य अर्थ 'आना' होता है। परन्तु निरुक्त में इसका वाच्य अर्थ 'किसी शब्द में किसी वर्ण का आना तथा प्रत्यय होता है।' धर्म शास्त्र में 'आगम' का अर्थ धर्मग्रन्थ तथा परम्परा से चला आने वाला 'सिद्धान्त' है। यथार्थता यह है कि 'आगम' जैन परम्परा का प्रचुर प्राचीन पारिभाषिक शब्द है। इतना ही नहीं, संस्कृत एवं प्राकृत इन दोनों भाषाओं में इसका एक जैसा रूप-स्वरूप दृष्टिगत होता है। अतएव यह शब्द तत्सम शब्द है। ०२ आत्मा
प्राकृत भाषा में 'आया', 'अत्ता' एवं 'अप्पा' शब्द 'आत्मा' के लिए प्रयुक्त हुए हैं और ये आगम-साहित्य में बहुधा रूपेण व्यवहृत हैं। आत्मा और जीव ये एक ही तत्त्व के दो नाम है। आत्मा शब्द "अत सातत्य गमने" अर्थात् अत् धातु से निष्पन्न हुआ है। 'अतति सततं भवं गच्छति इति आत्मा' रूप में आत्मा की परिभाषा है। आत्मा जन्म-मृत्यु के बंधन में बंध कर निरन्तर भ्रमण करती है। 'गमन' अर्थ वाली धातु ज्ञानार्थक भी होती है। इसलिये जो 'ज्ञान' आदि गुणों में 'आ' अर्थात् समन्तात् रहता है, रमण करता है, वह आत्मा है। द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से
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