Book Title: Swadhyaya Shiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Sahitya Kala Manch

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Page 146
________________ ०९. श्रमण 37 'समण' यह प्राकृत भाषा का महत्त्वपूर्ण शब्द है। जैन आगम - साहित्य का जब भी सर्वेक्षण और अन्वीक्षण किया जाता है, तब यह " समण" शब्द न केवल शतशः अपितु सहस्रशः दृष्टिगत होता है । वास्तव में जैनागमों में यह शब्द बहुधा प्रयुक्त हुआ है। " 'समण' शब्द के संस्कृत रूपान्तर चार बनते हैं। वे हैं - श्रमण, शमन, समन एवं समण। अर्थ की दृष्टि से उक्त शब्दों में पर्याप्तरूपेण अन्तर है । 'श्रमण' शब्द 'श्रम्' धातु से निष्पन्न हुआ है। जो मोक्ष - प्राप्ति के लिए श्रम अर्थात् परिश्रम करता है, तप करता है, वह 'श्रमण' है। 'श्रमण' शब्द से यह अभिव्यक्त होता है कि श्रमण संस्कृति का आदर्श प्रतीक श्रमण स्वयं श्रम से अपना आध्यात्मिक समुत्कर्ष करता है, स्वयं श्रम से मोक्ष प्राप्त करता है। इतना ही नहीं वह तपस्या से क्षीणकाय तथा तपस्वी “श्रमण" कहलाता है । " समण' का द्वितीय संस्कृत रूपान्तर 'शमन' है। शमन का अर्थ है - जो अपने राग-द्वेष रूप कषाय का शमन करता है, कषाय को उपशान्त कर देता है, वह वस्तुतः शमन कहलाता है । 'समण' का तृतीय संस्कृत रूप 'समन' बनता है । सर्व जीवों को आत्मतुला की दृष्टि से तोलने वाला समतायोगी “समन” कहलाता है। वास्तव में राग-द्वेष से रहित मध्यस्थ वृत्ति वाला 'समन' होता है । " निष्कर्ष यह है कि जो किसी से द्वेष नहीं करता है, जिसको सर्वजीव समान भावेन प्रिय हैं और वह अपने मन को शत्रु मित्र, निन्दा - स्तुति, उदय-अस्त, कंचन- कांच तथा लाभ-हानि में संतुलित रखकर समता भाव में अवस्थित रहता है, यही 'समन' शब्द का अर्थ और आशय है। 'समण' का चतुर्थ रूप संस्कृत भाषा में 'समण' बनता है। जो सर्व जीवात्माओं के साथ समान रूप से व्यवहार करता है। अन्य के सुख और दुःख को अपने समान समझता है और सर्व जीवों के साथ स्थायी रूप से मैत्री भाव संस्थापित करता है वह समण है । " 'श्रमण' मुनि और निर्ग्रन्थ का ही पर्यायवाची शब्द है । वास्तव में 'श्रमण' श्रमण-संस्कृति का सजग प्रहरी होता है, उसके जीवन में संयम और समता का 'मणिकांचन संयोग' परिलक्षित होता है। 39 40 १०. आचार्य ‘आयरिय’ प्राकृत भाषा का शब्द है। जैन आगम वाङ्मय में प्रस्तुत शब्द का अनेक स्थलों पर स्पष्टतः प्रयोग हुआ है।" 'आयरिय' का संस्कृत रूपान्तर 'आचार्य' बनता है। 'आङ्' उपसर्ग पूर्वक 'चर्' गतिभक्षणयोः धातु से 'आचार्य' शब्द निर्मित हुआ है। आचार्य शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ इस प्रकार से प्रतिपादित है"- 'आ' स्वाध्याय शिक्षा 133 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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