Book Title: Swadhyaya Shiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Sahitya Kala Manch

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Page 143
________________ संस्कृत रूपान्तर 'कषाय' है। कष और आय इन दो शब्दों के योग से “कषाय" शब्द का गठन हुआ है। 'कष' शब्द का अर्थ 'कर्म' है अर्थात् जन्म-मरण है और 'आय' का अर्थ 'लाभ' है। जिससे कर्मों का आय अथवा बन्धन होता है, जिससे जीवात्मा को पुनः पुनः जन्म-मृत्यु के चंक्रमण में पड़ना पड़ता है, वास्तव में वही वृत्ति "कषाय" है। जो मनोवृत्तियाँ आत्मा को कलुषित कर देती हैं, जिनके प्रभाव से आत्मा अपने स्वभाव से विमुख हो जाता है वे कषाय हैं। आवेग और लालसा विषयक वृत्तियाँ कषाय का प्रजनन करती हैं और इन विविध वृत्तियों का नाना प्रकार से व्यवहार कषाय-कौतुक को जन्म देता है। जो क्रोध, मान आदि जीवों के सुख-दुःख रूप बहुत प्रकार के धान्य को उत्पन्न करने वाले कर्म रूप खेत का कर्षण करते हैं अर्थात् जोतते हैं और जिनके लिये संसार की चारों गतियां मर्यादा अथवा मेंड रूप हैं वे "कषाय" हैं। जो काषाय रस के समान है वह कषाय है। जैसे बड़ आदि वृक्षों का काषाय रस श्लेष अर्थात् चिपकने का कारण है। चारित्र-परिणामों का कर्षण अर्थात् घात करने के कारण क्रोधादि चतुष्टय कषाय कहलाते हैं। क्रोधादि परिणाम आत्मा को दुर्गति में ले जाने के कारण आत्मिक स्वरूप का कर्षण अर्थात् हनन करते हैं, इस कारण वे कषाय कहलाते हैं। निष्कर्ष यह है कि क्रोधादि रूप कालुष्य ही कषाय हैं। कषाय के मूलतः चार भेद हैं - क्रोध, मान, माया और लोभा संक्षेप में कषाय के दो भेद हैं- प्रथम राग है और दूसरा द्वेष है।" माया और लोभ ये दोनों राग के अन्तर्गत हैं जबकि क्रोध एवं मान इनका अन्तर्भाव द्वेष के अंतर्गत हो जाता है। कषाय के जो भी भेद-प्रभेद हैं वे अपेक्षा के आधार पर आधृत हैं। कर्मबन्ध के दो कारण है-प्रथम योग है द्वितीय कषाय है। प्रकृति एवं प्रदेश इन दोनों का बन्ध योग से होता है तथा स्थिति एवं अनुभाग इन दोनों का बन्ध कषाय से होता है। संक्षेप में कहा जाय तो कषाय ही कर्मबन्ध का मूल एवं मुख्य हेतु है। वास्तव में कषाय का आवेग प्रबल होता है। जन्म-मृत्यु रूप विषवृक्ष कषाय से हरा भरा रहता है। वास्तव में कषाय एक ऐसा कौतुक है, जो आत्मा को कर्म जाल में जकड़ लेता है। ०६. समिति 'समिई' यह आगमीय पारिभाषिक शब्द है। प्रस्तुत शब्द का प्रयोग जैनागमों में बहुविध स्थलों पर हुआ है।" 'समिई' का संस्कृत रूपान्तर “समिति" बनता है। 'सम्' उपसर्ग पूर्वक 'इण्' धातु में ‘क्तिन्' प्रत्यय करने पर “समिति" शब्द निर्मित होता है। 'समिति' शब्द का अर्थ 'सभा' भी है। किन्तु आध्यात्मिक दृष्टिकोण से समिति का अर्थ इस रूप में किया गया है- श्रमण की चारित्र में जो सम्यक् प्रवृत्ति है, 130 स्वाध्याय शिक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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