Book Title: Swadhyaya Shiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Sahitya Kala Manch

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Page 138
________________ आगम-आहित्य के कतिपय शब्दों की मीमांसा श्री रमेशमुनि जी शास्त्री (उपाध्याय श्री पुष्करमुनि जी म.सा. के शिष्य) जैन आगमों के पारिभाषिक शब्दों की अपनी महत्ता है। इन शब्दों की विवेचना में अभिधान राजेन्द्र कोश, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश आदि कोश भी बने हैं, किन्तु पं. रत्न श्री रमेशमुनि जी शास्त्री ने कतिपय पारिभाषिक शब्दों का चयन कर विशेष रीति से उनकी विवेचना की है। -सम्पादक यह यथार्थपूर्ण तथ्य है कि अभिव्यक्ति स्वयं सिद्ध दिव्य शक्ति है और असीम क्षमता भी है। अभिव्यक्ति एवं आर्थिक व्यंजना में शब्द शक्ति की भूमिका रही है वह शिरसि शेखरायमाण है। शब्द और अभिव्यक्ति में पर्याप्त अन्तर यह है कि शब्द एक शक्ति है जबकि अभिव्यक्ति उस शक्ति का परिणाम है। प्रत्येक शब्द अपनी आर्थिक सम्पदा के दृष्टिकोण से विशिष्ट है, वरिष्ठ है। उस शाब्दिक अर्थ की अपनी परिभाषा है। अभिव्यक्ति के बहुविध उपकरणों में भाषा का जो स्थान है वह वस्तुवृत्त्या महत्त्वपूर्ण है। शब्द के रूप और अर्थ में काल एवं क्षेत्र का प्रभाव अमिट रूप से अंकित होता है। इतना ही नहीं, कालान्तर में उसके मौलिक स्वरूप में निश्चितरूपेण परिवर्तन भी परिलक्षित होता है। परिवर्तन की इस नित्य निरन्तर धारा में आगमीय शब्दावली भी अपना अर्थ-अभिप्राय विशेषतः ग्रहण करती है। शब्द वास्तव में स्थूल है और उसमें व्यंजित अर्थ अति सूक्ष्म है। यद्यपि सूक्ष्म की अभिव्यक्ति स्थूल के माध्यम से कदापि संभव नहीं है, तथापि जो शब्द किसी न किसी विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त होता है, व्यवहृत हो जाता है, अतिशय अर्थ की अपेक्षा से वह शब्द सामान्य रूप नहीं रह पाता है। अपितु पारिभाषिक शब्द के रूप में, उसकी महत्त्वपूर्ण और विलक्षण पहचान बन जाती है। किसी भी भाषा विशेष में पारिभाषिक शब्दावली की विद्यमानता उस भाषा-भाषी के बौद्धिक उत्कर्ष एवं बौद्धिक-उन्मेष का जीवन्त ज्वलन्त प्रतीक है और जहाँ उसका सद्भाव भी नहीं है वहाँ बौद्धिक दारिद्र्य का एकछत्र आधिपत्य ही है। भाषाओं की शब्दावली में पारिभाषिक शब्दों का सर्वतन्त्र स्वतन्त्र स्थान होता है। विशिष्ट अस्तित्व और वरिष्ठ महत्त्व सर्वदा एवं सर्वथा रहा है। जैन वाङ्मय विपुल है, विस्तृत है और विविध विद्याओं में विद्यमान है। उसमें 'आगम साहित्य' का अपना गौरवपूर्ण स्थान है। यह वह साहित्य है, जिसका यथार्थतः मूल्यांकन कर पाना शक्ति एवं मति से परे है। वास्तव में प्रस्तुत बहुविध वाङ्मय अगाध-अपार अमृत सागर है। सागर में मुक्ता प्राप्त होते हैं, अन्य असार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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