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प्रतिमा २. द्विमासिकी ३. त्रिमासिकी ४. चातुर्मासिकी भिक्षु प्रतिमा ५. पंचमासिकी भिक्षु प्रतिमा ६. पाण्मासिकी भिक्षु प्रतिमा ७. सप्तमासिकी भिक्षु प्रतिमा ८. प्रथमा रात्रिदिवा भिक्षु प्रतिमा ६. द्वितीया सप्तरात्रिदिवा भिक्षु प्रतिमा १०. तृतीया सप्तरात्रिदिवा भिक्षु प्रतिमा ११. अहोरात्रि की भिक्षु प्रतिमा १२. एकरात्रिकी भिक्षु प्रतिमा। आठवीं दशा- इसका नाम 'पर्युषणाकल्प' है। इस अध्ययन के मूल रूप के बारे में मुनि कन्हैयालाल जी 'कमल' का मत हैं कि आचार दशा के इस अध्ययन में केवल वर्षावास की समाचारी है। कुछ शताब्दियों पूर्व इस पर्युषणाकल्प को तीर्थंकरों के जीवन चरित्र तथा स्थिरावली से संयुक्त कर दिया गया था। यह शनैः शनैः कल्पसूत्र के नाम से जनसाधारण में प्रसिद्ध हो गया। अतः इसका मूलरूप व्यवच्छिन्न हो गया। इसमें भिक्षुओं के चातुर्मास एवं पर्युषण संबंधी समाचारी के विषयों का कथन था। देवेन्द्रमुनि जी लिखते हैं कि दशाश्रुतस्कन्ध की प्राचीनतम प्रतियाँ, जो चौदहवीं शताब्दी से पूर्व की हैं, उनमें आठवें अध्ययन में पूर्ण कल्पसूत्र आया है, जो यह स्पष्ट प्रमाणित करता है कि कल्पसूत्र स्वतन्त्र रचना नहीं, किन्तु दशाश्रुतस्कन्ध का ही आठवाँ अध्ययन है। कल्पसूत्र के पहले सूत्र में 'तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे....' और अंतिम सूत्र में ....भुज्जो भुज्जो उवदंसेइ पाठ है। वही पाठ दशाश्रुतस्कन्ध की आठवीं दशा में है। यहाँ पर शेष पाठ को 'जाव' शब्द के अन्तर्गत संक्षेप कर दिया है। कल्पसूत्र और दशाश्रुतस्कन्ध इन दोनों के रचयिता भद्रबाहु हैं। इसलिए दोनों एक ही रचनाकार की रचना होने से यह कहा जा सकता है कि कल्पसूत्र, दशाश्रुतस्कन्ध का आठवाँ अध्ययन ही है। वृत्ति, चूर्णि, पृथ्वीचंदटिप्पण और अन्य कल्पसूत्र की टीकाओं में यह स्पष्ट प्रमाणित है।'
भिक्षु प्रतिमा समाप्त करने के अनन्तर वर्षा ऋतु में निवास के योग्य क्षेत्र की गवेषणा करनी पड़ती है। उचित स्थान प्राप्त कर उसको सारी वर्षा ऋतु, वहीं पर व्यतीत करनी पड़ती है, इस दशा में इसी संबंध में कथन होने से इसका नाम 'पर्युषणाकल्प' रखा गया। इस दशा में महावीर स्वामी के जन्मादि कल्याणक जिस जिस नक्षत्र में हुए हैं, उसकी सूचना दी गई है। नवमी दशा- इसमें मोहनीय बन्ध के स्थान उल्लिखित है। 'मोहयत्यात्मानं मुह्यत्यात्मा वानेन' मोहनीय वह कर्म है जो आत्मा को मोहता है अथवा जिसके द्वारा आत्मा मोह में फंसता है। अर्थात् जिस कर्म के परमाणुओं के संसर्ग से आत्मा विवेक शून्य और मूक हो जाता है, उसी को मोहनीय कर्म कहते हैं। मोहनीय कर्म- बंध के
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